Weekday Sequence Indian View

वारक्रम की भारतीय अवधारणा

यूरोकेन्द्रवादियों द्वारा प्रचारित किया जाता है कि पृथ्वी से ग्रहों की दूरियों के आधार पर वारक्रम चैलडियनों (चाण्डालों) द्वारा खोजा गया था, क्योंकि यूनानियों ने ज्योतिष और खगोलविज्ञान को चैलडियनों से सीखा था । किन्तु यह एक मिथ्या विचार है । निम्न चित्र सही दृश्य दिखाता है :—

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इस चित्र में निकटतम ग्रह चन्द्रमा (सोम वा चन्द्र) से आरम्भ होकर और दक्षिणावर्त चलते हुए, हम सबसे दूर के ग्रह शनि पर समाप्त होने वाले सप्ताह के क्रम को पाते हैं, जिसके पश्चात ६० वर्ष की कक्षा की दूरी पर भ-चक्र वा नक्षत्रों का चक्र है। बड़ी कक्षाएँ तारों और धूमकेतुओं की हैं, जिन्हें ग्रह नहीं माना जाना चाहिए । यह पारम्परिक भारतीय दृष्टिकोण है । आधुनिक विज्ञान “ग्रह” को प्लूटो से अधिक आकार वाले सूर्य के चारों ओर कक्षाओं के रूप में परिभाषित करता है । ग्रह की यह आधुनिक परिभाषा ग्रह की प्राचीन भारतीय परिभाषा से गुणात्मक रूप से काफी भिन्न है, जिसे देवताओं के रूप में परिभाषित किया गया था, ज्योतिष के माध्यम से जीवों को पिछले कर्मों का फल देने वाले भगवान के अवतार के रूप में ।

इस चित्र के वारक्रम में एक ग्रह को त्यागकरर बढ़ने करने से हमें पृथ्वी से मापी गई ग्रहों की दूरियों का क्रम मिलता है, जो लाल रेखाओं में दिखाया जाता है।

क्षैतिज हरी रेखाएँ वैदिक-पुराण दृष्टिकोण के अनुसार विभिन्न लोकों को दर्शाती हैं : शीर्ष पर चन्द्रमा का पितृ-लोक है, फिर हम सूर्य+मंगल पाते हैं जो पराशर-होराशास्त्र के अनुसार मर्त्य-लोक को दर्शाते हैं । तब हम शनि+बुध पाते हैं जो पराशर-होराशास्त्र के अनुसार नरकलोक को दर्शाता है, और अन्त में हमें शुक्र और बृहस्पति मिलते हैं जो पराशर-होराशास्त्र के अनुसार देवलोक को दर्शाते हैं।

पराशर-होराशास्त्र में ऋषि पराशर ने यह भी कहा कि उन्होंने अपने पाठ में कुछ भी नहीं जोड़ा और केवल पहले के आचार्यों के विचारों को दोहराया । इसलिए यह दृष्टिकोण पुरातन वैदिक ऋषियों से आता है।

इसलिए ग्रहों की दूरियों से सप्ताह के दिनों के अनुक्रम को निकालना गलत और उलट तरीका है, और इसके लिए दो ग्रहों पर छलांग लगाने की आवश्यकता होती है, जबकि इस भारतीय दृष्टिकोण को केवल एक ग्रह पर कूदने की जरूरत है और विभिन्न लोकों के बारे में भी विहित दृष्टिकोण के अनुरूप है।

पराशर-होराशास्त्र चन्द्रमा को भी देवलोक के निचले क्षेत्र का हिस्सा मानता है । इसलिए, स्वर्ग के तीन स्तर हैं : पितृ-लोक (चन्द्र), कर्म-देवलोक (शुक्र) और आजान-देवलोक (बृहस्पति)। पितृ-लोक भुवलोक के अभौतिक चन्द्रमा का अदृश्य पक्ष है जो पृथ्वी से कभी दिखाई नहीं देता । कर्म-देवलोक वह लोक है जहाँ जीव अपने कर्मों के अनुसार अस्थायी स्वर्ग का आनन्द लेते हैं किन्तु अमर देवताओं की सङ्गति का आनन्द नहीं लेते हैं । इन्द्र जैसे देवता भी कर्मदेव हैं (एक इन्द्र एक मन्वन्तर के लिए हैं, जिसके पश्चात दूसरे जीव को अगले मन्वन्तर के लिए इन्द्रपद प्राप्त होता है), जबकि आजान-देवलोक वह सर्वोच्च लोक है जहाँ जीव अपने कर्मों के अनुसार अस्थायी स्वर्ग का आनन्द लेते हैं और सूर्यदेव जैसे अमर देवताओं की सङ्गति का भी आनन्द लेते हैं।

मृत्यु के बाद जीव विभिन्न लोकों में कैसे जाते हैं, इसका वर्णन पराशर-होराशास्त्र में किया गया है। कुण्डली देखते समय मैं सबसे पहले गुप्त रूप से इस विशेषता की जाँच करता हूं, जिससे मुझे जातक के समग्र पुण्य/पाप का अनुमान हो जाता है । नरक में जाने वाला व्यक्ति ज्योतिषीय सहायता के योग्य नहीं है जब तक कि जातक कष्टदायी तपस्या से गुजरने के लिए तैयार न हो, जिसकी सम्भावना नहीं है, ऐसे जातक यह स्वीकार ही नहीं करेंगे कि उन्होंने गम्भीर पाप किए हैं।

ग्रहों की दूरियाँ गौण हैं, वे सृष्टि के पश्चात बनी हैं । किन्तु उपरोक्त सँयोजना सृष्टि से पहले की है, यह ऋषियों के वैदिक ज्ञान का अनुभाग है जो शाश्वत है और जिसके अनुसार सभी कल्प पिछले कल्पों (ऋग्वेद के अघमर्षण सूक्त की अन्तिम पङ्क्ति) के अनुसार बनाए गए हैं।

-VJ

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