पञ्चाङ्ग के अङ्ग — १ : वार
पञ्चाङ्ग के पाँच अङ्ग हैं वार,तिथि,करण,नक्षत्र तथा योग । वार पहला अङ्ग है ।
वार सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक के काल को कहते हैं जो ६० घटी का होता है ।
असुरों का दिन रात में होता है,अतः महामदासुर के अनुयायियों का दिन सूर्यास्त से आरम्भ होता है ।
भारतीय सिद्धान्त में सृष्टि का आरम्भ मध्यरात्रि से हुआ था,अतः आज तक पञ्चाङ्ग बनाने का गणित दिनों की गिनती मध्यरात्रि से ही आरम्भ होता है । किन्तु उसे वार या दिन नहीं माना जाता और केवल पञ्चाङ्ग बनाने में ही प्रयुक्त होता है,अन्य किसी कार्य में नहीं । परन्तु यूरोप के भूतपूर्व−आर्यों ने अपने वैदिक इतिहास को भुला दिया और मध्यरात्रि से ही वार की गणना करने लगे । आधुनिक युग में ब्रिटेन का साम्राज्य कई महादेशों में फैल गया तो सभी उपनिवेशों पर लन्दन का ग्रीनविच वेधशाला का समय बलपूर्वक थोप डाला ताकि पूरे साम्राज्य की लूट−खसोट का डैटा एक ही समय−प्रणाली में रख सके ।
अंग्रेजों ने इसे और भी सरल बनाने के लिये “मध्यम समय” का प्रचलन आरम्भ कर दिया ताकि समगति से चलने वाली यान्त्रिक घड़ी के समय को ही एकमात्र कालमापक बनाया जाय । सूर्य से दिन की गणना होने के कारण संसार के सभी भागों में वास्तविक समय की गणना सूर्य की वास्तविक स्थिति द्वारा होता था जिसका ज्ञान दिन में धूपघड़ी द्वारा होता है जिसे “स्पष्ट समय” कहते हैं । कुण्डली बनाने में वास्तविक समय का उपयोग होता रहा है । मध्यम समय का वस्तुतः अस्तित्व नहीं होता क्योंकि सूर्य की वास्तविक गति को सम यूनीफॉर्म मानकर इसकी गणना होती है । स्पष्ट समय और मध्यम समय में अन्तर को वेलान्तर अथवा इक्वेशन अॅव टाइम कहते हैं ।
अंग्रेजों ने एक और “सुधार” अर्थात् विकृति की — किसी भी देश के एक ही नगर के समय को पूरे देश पर थोपने की परिपाटी आरम्भ की । ज्योतिषशास्त्र को नष्ट करने के लिये चर्च ने इस “सुधार” को बढ़ावा दिया । चर्च के प्रयासों के बावजूद आधुनिक युग से पहले ईसाई देशों में भी सभी शहरों और गाँवों में वहाँ की स्थानीय धूपघड़ी द्वारा लोग समय मापते थे । आधुनिक युग में व्यापारियों द्वारा बहीखाता को सुगम बनाने के लिये समय−प्रणाली को आसान बनाया गया जिसे वैज्ञानिकों ने भी अपनाया । परन्तु व्यावहारिक वैज्ञानिक कार्यों में आज भी स्पष्ट समय का प्रयोग होता है जैसा कि आज भी ज्योतिषशास्त्र में मान्य है ।
स्पष्ट समय के अनुसार वार की गणना करने पर किसी भी दिन−रात अर्थात् अहोरात्र के ६० घटियों का मान पिछले या अगले दिन−रात की ६० घटियों के बराबर नहीं रहता,क्योंकि हर दिन सूर्योदय का काल बदलता रहता है । किसी एक दिन भी सभी घटियों के मान परस्पर बराबर नहीं रहते क्योंकि सूर्य की कक्षा गोल नहीं है जिस कारण सूर्य की कोणीय गति सम नहीं रहती ।
अतः भारतीय कालगणना में भूलकर भी मध्यम−समय का प्रयोग न करें । “वार” की गणना सदैव स्पष्ट ही करें ।
पृथ्वी की तुलना में सूर्य की सापेक्ष गति पर दिन−रात की गणना होती है । दिन और रात को मिलाकर अहोरात्र कहते हैं । अहोरात्र ही वार भी कहलाता है ।
आधुनिक यूरोप के असुरों में सूर्योदय की गणना उलटी दृष्टि से होती है — जब मनुष्य सूर्य को देखे तब वे लोग सूर्योदय मानते हैं । अतः उनके सूर्योदय में वायुमण्डल द्वारा दृष्टिभ्रम का भी समावेश हो जाता है ।
दूसरी गलती यह है कि सूर्य के ऊपरी क्षितिज से पहली किरण सबसें पहले दिखती है जिसे वे लोग सूर्योदय मानते हैं,जबकि भारतीय सिद्धान्त में सूर्य के केन्द्र का उदय अर्थात् पृथ्वी की पूर्वी क्षितिज पर आना ही सूर्योदय है ।
सबसे महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि असुरों की गणना में बाह्य चक्षु से दिखने वाले भौतिक सूर्य का महत्व है,जबकि भारतीय ज्योतिष तथा धर्मशास्त्र में सूर्यदेव अर्थात् सविता का महत्व है जो बाह्य चक्षु द्वारा केवल तभी दिख सकते हैं जब वे चाहें । अतः ज्योतिष में उपयोगी सूर्य की स्थिति सूर्यसिद्धान्तीय सूत्रों द्वारा ही जाना जाता है । सूर्यदेव तथा अन्य ग्रहदेव ही प्राणियों को कुण्डली के अनुसार कर्म के फल दे सकते हैं और पञ्चाङ्गों में उल्लिखित धार्मिक पर्वों और व्रतों का भी फल दे सकते हैं ।
वारक्रम की गणना का आधार निम्न लेख में है —
http://vedicastrology.wikidot.com/weekday-sequence-indian-view
एक अहोरात्र अथवा वार के दो भाग होते हैं — दिन और रात्रि,जिनके मान क्रमशः दिनमान तथा रात्रिमान कहलाते हैं । दिनमान और रात्रिमान आपस में बराबर नहीं होते,ग्रीष्मकाल में दिनमान दीर्घ होता है और जाड़े में छोटा । किन्तु सदैव दिन में ३० घटी तथा रात्रि में भी ३० घटी ही होते हैं । अतः घटियों और उनके पलों−विपलों आदि सूक्ष्म विभागों के मान भी परस्पर असमान होते हैं । किसी भी घटी के ६० पल आपस में बराबर नहीं होते,किसी भी पल के ६० विपल आपस में बराबर नहीं होते । ऐसी जटिल कालगणना द्वारा ही सही कुण्डली बनती है किन्तु यूरोप के मध्यम समय ने सबकुछ गड़बड़ कर डाला ।
अब तो लोगों का मन मनोरञ्जन पर अधिक रहता है जिस कारण समझाने पर भी मध्यम समय जैसी काल्पनिक प्रणाली को वे त्यागेंगे नहीं । कलियुगी लोगों को मस्तिष्क में सरल चीजें चाहियें और इन्द्रयों एवं उदर में जटिल वस्तुएँ ।
अहोरात्र वा वार से भिन्न “सौरदिन” का भी प्रयोग होता है जो सूर्य की गति का एक अंश है । इसमें दिन और रात का विभाजन नहीं होता । सौरांश के आधार पर ही संक्रान्ति और वर्ष का निर्धारण होता है । मेष संक्रान्ति से सौरवर्ष का आरम्भ होता है ।
मेष संक्रान्ति की निकटतम अमावस से धार्मिक वर्ष का आरम्भ होता है जो चित्रा नक्षत्र में या पास में पड़ने वाली चैत्र पूर्णिमा से पहले वाली चैत्र अमावस है । चित्रा नक्षत्र के कारण ही चान्द्रमास का नाम चैत्र है । विशाखा नक्षत्र के आसपास चन्द्रमा हो और पूर्णिमा हो तो चान्द्रमास “वैशाख” कहलाता है ।
धार्मिक वर्ष को आजकल विक्रम संवत् कहा जाता है,विक्रमादित्य से पहले विक्रमादित्य की ही तरह न्यायप्रिय प्रजापालक राजाओं के नाम पर संवतों का प्रचलन था । साम्राज्यवादी राजाओं के संवत् भारत में कभी प्रचलित नहीं हो सके क्योंकि उनको ही असुर कहा जाता था ।
धार्मिक वर्ष का आरम्भ सूर्योदय से होता है,अतः उसमें पूर्णाङ्क में वारों की संख्या होती है । परन्तु सौरांश पर आधारित सौरवर्ष का आरम्भ सूर्योदय से नहीं बल्कि मेषराशि में सूर्य के प्रवेश से होता है,अतः उसमें वारों का उपयोग नहीं होता ।
धार्मिक वर्ष का मुख्य कर्म यज्ञ है जिसके लिये सूर्योदय,मध्याह्न और सूर्यास्त आदि की सही गणना अनिवार्य है । यज्ञकर्म को सवन कहते हैं । सवन तीन हैं — प्रातः सवन,मध्याह्न सवन और सान्ध्य सवन । जो लोग दैनिक सवन नहीं कर सकते उनको त्रिकाल सन्ध्या करने की परम्परा है वरना सवन न करने का दोष लगता है । सवनों पर आधारित अहोरात्र को “सावन दिन” अथवा सावन अहोरात्र कहते हैं ।
सूर्यकेन्द्र को द्रष्टा मानकर सूर्योदय पर आधारित उदयास्त को “सौर सावन दिन” कहते हैं । चन्द्रकेन्द्र को द्रष्टा मानकर चन्द्रोदय पर आधारित चन्द्र−उदयास्त को “चान्द्र सावन दिन” कहते हैं । इसी प्रकार सभी ग्रहों के सावन दिन होते हैं । किन्तु केवल “सौर सावन दिन” को ही “वार” कहा जाता है क्योंकि जगत के सर्जक सूर्य ही सवनों के काल निर्धारित करते हैं और हर कल्प में सूर्य के वार रविवार से ही सृष्टि में वार−प्रवृति आरम्भ होती है ।