Rashtriya Svayamsevak Sangh

राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ

जन्मकुण्डली की विवेचना

स्थापना (जन्म) के आँकड़ें

  • स्थान : नागपुर संघ मुख्यालय

इन्टरनेट उपग्रह चित्र http://wikimapia.org/#lang=en&lat=21.146667&lon=79.110556&z=18&m=b
अक्षांश 21:08:47.97 उत्तर
रेखांश 79:06:38.33 पूर्व

  • समय : 27:09:1925 , प्रातः 05:00 भारतीय मानक समय |

1 जनवरी 1907 से 31 अगस्त 1942 तक महाराष्ट्र में वही समय प्रणाली थी जो आज भारतीय मानक (IST) है, अर्थात लन्दन के ग्रीनविच से साढ़े पाँच घण्टा पूर्व (अधिक)| संघ की पुस्तकों में उल्लेख है कि प्रातः पाँच बजे ही संघ के स्थापना की घोषणा हुई थी | इस समय में एकाध पलों की त्रुटि हो सकती है जिसे सुधारने का उपाय है महत्वपूर्ण घटनाओं की जाँच, जिसमें कई सप्ताह तक का समय लग सकता है, किन्तु उसका लाभ तभी होगा जब समय की पूर्ण शुद्धि के साथ भविष्यवाणी अभीष्ट हो |

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पद्धति :— पराशर ऋषि के होराशास्त्र द्वारा फलादेश और सूर्यसिद्धान्तीय गणित द्वारा ग्रहगणित (कुण्डली सॉफ्टवेयर द्वारा — http://vedicastrology.wikidot.com/software-download)|
कुण्डलियों के स्क्रीनशॉट लेकर यहाँ पेस्ट करने में समय भी नष्ट होता है और पेज बड़ा हो जाने से धीमे इन्टरनेट वाले लोग खोल नहीं पाते हैं | अतः प्रस्तुत लेख में कुंडलियों के चित्र नहीं दिए जारहे हैं, जिन्हें देखना हो वे उपरोक्त सॉफ्टवेयर डाउनलोड करके स्वयं कुण्डली बनालें और इन लेख से तुलना कर लें | ज्योतिष सीखने में भी यह लेख काम देगा |

Kundalee Software इनस्टॉल करके निम्नोक्त कुण्डलियाँ देखते हुए प्रस्तुत विश्लेषण यदि पढ़ा जाय तो किसी की कुण्डली का विश्लेषण कैसे करें यह सीखने में सहायक होगा |

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स्वभाव के प्रधान लक्षण

कुण्डली द्वारा स्वभाव और चरित्र के प्रधान लक्षण देखने का तरीका है लग्न और आत्मकारक का मूल्यांकन | पराशर होराशास्त्र में आत्मकारक को ग्रहों का राजा कहा गया है | राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ की जन्मकुण्डली में आत्मकारक हैं बृहस्पति, जो अपनी धनुराशि में स्वगृही होकर पञ्चम भाव में बैठे हैं और वहीं द्वादशेश चन्द्रमा उस राशि में तो नहीं है किन्तु भावचलित कुण्डली में बृहस्पति के साथ उसी पञ्चम भाव में आ गए हैं | बृहस्पति पञ्चम और अष्टम के स्वामी भी हैं |राहु के सिवा सभी ग्रहों की मित्रदृष्टि का लाभ भी बृहस्पति को मिल रहा है | नवांश में बृहस्पति के ईश "देव" हैं |
अतः आत्मकारक कुल मिलाकर अत्यन्त शुभ हैं | पञ्चम भाव बली और शुभ होने के कारण राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ को बड़ी संख्या में अनुयायी मिलेंगे जिनको सन्मार्ग पर चलने की सीख मिलेगी, खासकर बृहस्पति की महादशा में इसका उत्थान होना चाहिए | लग्न पर बृहस्पति की 55' (92%) दृष्टि के कारण स्वभाव, चाल-चलन एवं शारीरिक दशा हेतु राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ शुभ सिद्ध होगा, इन मामलों में अच्छा मार्ग दिखाएगा | पञ्चम भाव शुभ होने के कारण सांसारिक विद्याओं को धार्मिक मार्ग पर लाने का प्रयास करेगा | किन्तु बृहस्पति अष्टमेश होने के कारण पञ्चम को कुछ हद तक अशुभ भी बना रहे हैं और अष्टम भाव को शुभ बल प्रदान कर रहे हैं — सांसारिक विद्या और लोकप्रियता के मार्ग में बाधा भी मिलेगी |
भावचलित चक्र में लग्न में चतुर्थ एवं नवम भावों (क्रमशः केन्द्र एवं त्रिकोण) का स्वामी होने के कारण राजयोग बनाते हुए मंगल बैठे हैं, किन्तु लग्नेश शत्रुगृही सूर्य प्रचण्ड धनयोग के स्वामी उच्च बुध के सहित एक ही राशि में मंगल के साथ हैं जिस कारण मंगल पर उनका शुभ एवं अशुभ प्रभाव है | शत्रुगृही सूर्य की युति बुध के उच्चत्व को कुछ ही हद तक भंग कर रहा है, अतः मंगल का शुभ राजयोग भी प्रभावी हो रहा है किन्तु सबल नहीं है | परन्तु बृहस्पति के साथ अतिमित्र परस्पर दृष्टि सम्बन्ध मंगल को अत्यधिक शुभत्व एवं बल प्रदान कर रहा है | फलस्वरूप लग्न का फल शुभ है |
अतः लग्न और आत्मकारक का सम्मिलित फल यही है कि राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ विश्व का सबसे विशाल स्वयंसेवी संस्था बन गया है जिसमे सदस्यता का प्रावधान तक नहीं है, जिसकी मर्जी हो शाखा में आये और जब मन हो चला जाय, एवं उन सदस्यों के माध्यम से चरित्र तथा संस्कारों को सुधारने का प्रयास यह संगठन करता रहेगा | धर्म के स्वामी मंगल ही हैं, अतः यह संगठन धर्म के मार्ग की शिक्षा देगा | मंगल पुत्रकारक (अनुयायियों के कारक) एवं बृहस्पति आत्मकारक हैं, दोनों में परस्पर मित्र दृष्टि सम्बन्ध के कारण अनुयायियों की संख्या एवं चरित्र की गुणवत्ता पर इस शुभ सम्बन्ध का अच्छा प्रभाव पड़ रहा है | लग्न में युद्ध के नैसर्गिक स्वामी मंगल के बैठने का फल यही है कि यह संगठन धर्म की संस्थापना केवल प्रवचन से ही बल्कि जुझारूपन से करना सिखाएगा | भावचलित में बुध भी लग्न में बैठ गए हैं जो धनभाव तथा आयभाव के स्वामी तथा उच्चस्थ होने के कारण प्रचण्ड धनयोग बना रहे है | अतः इस संगठन को अपने क्रिया कलापों के लिए आवश्यक धन स्वयंसेवक ही उपलब्ध कराते रहेंगे, किन्तु शत्रु गृही सूर्य के कारण धनी समुदाय (पूँजीपति वर्ग) से पूर्ण सहयोग नहीं मिल सकेगा |
लग्न पर जिन ग्रहों का प्रभाव है उनमें सबसे बली हैं बुध जो उच्च के हैं, बुध की शत्रु दृष्टि केवल तीन भावों पर है — चतुर्थ, नवम और द्वादश , जो क्रमशः विवेक, धर्म तथा मोक्ष के भाव हैं, अतः सनातन धर्म के मूल सिद्धान्तों का यह संगठन सही तरीके से प्रचार नहीं कर सकेगा , यद्यपि बृहस्पति और मंगल के कारण उन सिद्धान्तों का समर्थक बना रहेगा | बुध की ही महादशा में वाजपेयी जी के अन्तर्गत सरकार बनी जब धर्म की स्थापना को भूलकर शाइनिंग इण्डिया के चक्कर में ये लोग फँस गए जिस कारण तीव्र आर्थिक विकास कराने और सेना को सबल बनाने के बावजूद चुनाव हार गए |
अप्रकाश ग्रहों का फल भी अपना रंग दिखाता है | लग्नकुण्डली में उनका फल है आयुनाश (धूम — चन्द्र) तथा ज्ञाननाश (लग्नस्थ शिखी)| राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ की कुण्डली में सबल दीर्घायुयोग है जिसे लग्नस्थ शिखी मामूली क्षति पँहुचा रहा है, क्योंकि आयु के तीसरे भाव में स्वगृही शुक्र एवं उच्च के शनि बैठे हैं, और रोग तथा मृत्यु वाले छठे तथा आठवें भावों के स्वामी शनि और बृहस्पति भी अत्यधिक सबल हैं | अतः शत्रुओं के षड्यन्त्रों और आक्रमणों का राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ की आयु पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पडेगा, यद्यपि लग्नस्थ शिखी के कारण समस्याएं आती रहेंगी, खासकर अशुभ ग्रहों की दशा में जिसका उल्लेख अगले अनुच्छेद में है |
धार्मिकता की असली पहचान नवांश-देवता से होती है | पाँच ग्रहों के नवांश-देवता हैं "राक्षस( अर्थात तमगुण) — सूर्य,चन्द्र, शनि, राहू और केतु), दो के नवांश-देवता हैं "देव" (अर्थात सतगुण) — बृहस्पति और शुक्र, एवं लग्न तथा दों ग्रहों के नवांश-देवता हैं "नर" (रजगुण) — मंगल और बुध | किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि राक्षस की प्रधानता है | कुण्डली में चार ग्रह प्रबल हैं जिनमें बुध मध्यम चरित्र के हैं (नर), और केवल शनि राक्षस हैं, जबकि बृहस्पति तथा शुक्र सात्विक हैं | अतः प्रबल ग्रहों में सात्विकता का प्राधान्य है | इसका मोटे तौर पर यह अर्थ है कि संघ के सक्रीय अनुयायियों में एक चौथाई लोग मध्यम (राजसिक) चरित्र के होंगे, एक चौथाई तमगुणी होंगे, और आधे लोग सतगुणी होंगे | अतः सतगुणी लोगों का वर्चस्व बना रहेगा | अन्य ग्रहों का भी कुछ न कुछ प्रभाव रहेगा ही, अतः यह आँकड़ा स्थूल है, किन्तु लगभग सही है |
जन्मकुण्डली में सोलह वर्ग (षोडशवर्ग) होते हैं, सबकी अलग-अलग कुण्डली और अलग-अलग विंशोत्तरी आदि दशाएं, अलग-अलग कारक और आरूढ़ होते हैं, किन्तु कलियुग में इतना सिर कौन धुनें ? अतः ज्योतिष में शॉर्टकट का प्रचार हो गया है | संस्कारों का निर्णय करने में षोडशवर्ग का क्या महत्त्व है इसपर आजकल कोई ध्यान भी नहीं देता | प्रथम वर्ग को लग्न-वर्ग या लग्न-कुण्डली कहते हैं जिसमें ग्रह स्वयं ही देवता हैं | नवांश वर्ग के देवता का प्रयोग ऊपर दिखाया गया है | अब कुछ अन्य वर्गों के देवताओं का उपयोग दिखाते हैं |
होरा-वर्ग "धन" के लिए होता है, इसमें दो ही देवता होते हैं | राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के होरावर्ग में सारे ग्रह चन्द्र-होरा में हैं जो शुभ माना जाता है, यह एक विलक्षण संयोग है जो शायद ही किसी की कुण्डली में मिलेगा | अतः संघ जो भी ठान ले उसमें धन न भी हो तो धनाभाव के कारण कार्य रुक नहीं सकता |
सन्तान (अनुयायी, शिष्य भी) के लिए सप्तांश-वर्ग है | संघ के सप्तांश में बृहस्पति, मंगल और लग्न का देवता "मद्य" है, अतः इन ग्रहों का प्रभाव जिनपर पडेगा वे स्वयंसेवक संघ से बाहर किसी की नहीं सुनेंगे, अपने ज्ञान के नशे में चूर रहेंगे | अन्य सात ग्रहों के सप्तांश-देव इक्षुरस और शुद्धजल हैं, अतः अधिकाँश स्वयंसेवक दूसरों को भी अपने समान ही मनुष्य मानेंगे | फलस्वरूप बहुमत स्वयंसेवकों का संस्कार शुभ ही होगा | भाजपा की कुण्डली में भी सप्तांश के देवताओं में 3:7 का ही अनुपात है, शुभत्व अधिक है | कांग्रेस में भी ऐसा ही है, अधिकाँश सदस्य बुरे नहीं हैं (नेता बुरे हैं)| इससे सिद्ध होता है कि भारतीय समाज में बहुमत लोग विश्व के औसत लोगों की तुलना में बेहतर हैं |
षष्ट्यंश वर्ग का बल सर्वाधिक होता है, संघ के षष्ट्यंश वर्ग में शुक्र के देव "वंश-क्षय" है जिसके विंशोत्तरी दशा के काल में स्वयंसेवकों की संख्या गिरने लगेगी किन्तु शुक्र लग्नकुण्डली में बली हैं,अतः परिणाम बाद में सूर्य की दशा में मिलेगा जो निर्बल भी हैं और अशुभ षष्ट्यंश-देव वाले भी हैं |
बृहस्पति का षष्ट्यंश-देव भी "कालरूप" हैं, जिसके चार प्रकार के परिणाम हैं — प्रथम वर्ग में बृहस्पति पञ्चम भाव के स्वामी हैं और बलवान हैं, किन्तु पञ्चम के साथ अष्टम (मृत्यु) के भी स्वामी होने के कारण मिश्रित गुणों वाले हैं, उसमें षष्ट्यंश-देव "कालरूप" का फल जुड़ने के कारण स्वगृही त्रिकोणस्थ बृहस्पति की महादशा का जो लाभ मिलना चाहिए वह नहीं मिला, उस दशा के अन्तकाल में कुछ दिनों तक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सत्ता में भागीदारी भी मिली तो 92 भाजपाई सांसदों के बावजूद राजनीति के हाशिये पर ही संघ को रहना पडा, संघ की नीतियों को लागू करना तो दूर, उनपर चर्चा तक को दबाया गया |
षष्ट्यंश-देव का दूसरा फल है प्रथम वर्ग के बृहस्पति का सन्तान/शिष्य के भाव में रहने के कारण अधिकाँश स्वयंसेवक "कालरूप" स्वभाव के रहेंगे, उनसे झगड़ा मोल लेना घातक होगा |
तीसरा फल है षष्ट्यंश कुण्डली बनाकर उसमें उसकी विंशोत्तरी आदि के अनुसार फल देखना | षष्ट्यंश वर्ग का फल केवल राजपरिवारों में ही देखा जाता है, सामान्य लोगों में यह फल गौण रहता है | किन्तु षष्ट्यंश वर्ग में कोई ग्रह बलवान हो तो सामान्य लोगों में भी कुछ फल देता ही है |
परन्तु षष्ट्यंश-वर्ग का चौथा परिणाम सबके लिए महत्वपूर्ण होता है — षष्ट्यंश-वर्ग में किसी ग्रह का बलाबल प्रथम वर्ग के साथ जोड़कर प्रथम वर्ग के फल को और भी सही करते हैं | संघ के षष्ट्यंश-वर्ग में प्रथम वर्ग की तरह ही शुक्र और शनि सबसे अधिक बलवान हैं, अतः प्रथम वर्ग के बल की वृद्धि षष्ट्यंश-वर्ग कर रहा है |
किसी भी वर्ग की कुण्डली देखते समय सुदर्शन चक्र का फल देखने से परिणाम में विश्वसनीयता बढ़ती है | लग्न, सूर्य और चन्द्रमा को लग्न मानकर तीन कुण्डलियाँ बनायी जाती हैं और उनके फलों को सम्मिलित रूप से निर्धारित किया जाता है | संघ के प्रथम वर्ग में बृहस्पति लग्न-कुण्डली में 5-8 भावों के स्वामी हैं, सूर्य-कुण्डली में 4-7 भावों के एवं चन्द्र-कुण्डली में 3-12 भावों के स्वामी हैं | इन छ भावों में से केवल पञ्चम भाव के स्वामी ही शुभ होते हैं | अतः बृहस्पति की दशा भी संघ के लिए उतनी शुभ नहीं हो सकती जो कि केवल लग्न-कुण्डली के अनुसार होनी चाहिए थी | चौथा, सातवाँ और दसवाँ भाव "केन्द्र" कहलाता है जिसके स्वामी बृहस्पति जैसे नैसर्गिक रूप से शुभ ग्रह हों तो अशुभ फल देने लगते हैं, इसे केन्द्राधिपति दोष कहा जाता है | इसी तरह अन्य ग्रहों का भी फल सभी कुण्डलियों में देखना चाहिए |

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दशाओं के आधार पर भूत और भविष्य

भूतकाल

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना काल में सूर्य की विंशोत्तरी महादशा चल रही थी जो 19-7-1929 तक चली, शत्रुगृही सूर्य के कारण संघ उस काल में कमजोर बना रहा, अधिक शाखाएं नहीं खुल पायीं | उसके बाद चन्द्रमा की दशा दस चान्द्रवर्षों तक चली , चन्द्रमा स्वयं भी मित्रगृही हैं और स्वगृही (बली) बृहस्पति के साथ मित्रभाव से होने के कारण बृहस्पति का फल भी दे रहे हैं (लघु पाराशरी के अनुसार ग्रह अपना मुख्य फल सम्बन्धी की दशाओं में देते हैं)| अतः चन्द्रमा की महादशा में ही संघ राष्ट्रीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण संगठन बन पाया और पञ्चम भाव में चन्द्रमा के बैठने के कारण बड़ी संख्या में स्वयंसेवक संघ से जुड़े |
उसके बाद मंगल की महादशा 1-4-39 से 15-1-46 ईस्वी तक चली | मंगल शुभ तो था किन्तु सबल नहीं | बलवान बुध शत्रु बनकर मंगल को दबा रहा था, अतः पूँजीपति वर्ग उस काल में संघ से बिलकुल कटा रहा | उसके बाद राहू की महादशा तो और भी अशुभ थी, जिस कारण ब्रिटिश द्वारा भारतीयों को सत्ता सौंपने के काल में संघ उस प्रक्रिया से पूर्णतया वंचित रहा |
संघ के विरोधी प्रचार करते हैं कि संघ को स्वतन्त्रता संग्राम से रूचि नहीं थी, किन्तु सच्चाई कुछ और है | संघ के नेता जानते थे कि हिन्दूवादी संगठन होने के कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अंग्रेजों का विरोध नहीं भी करेगी तो भी अंग्रेजों की कोपदृष्टि संघ पर बनी रहेगी | अतः संघ के संस्थापक (हेडगेवार) स्वयं व्यक्तिगत हैसियत से स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेते थे किन्तु संघ को उससे दूर रखते थे ताकि जबतक संघ लड़ने के लायक मजबूत न हो जाए तबतक संघ की जड़ों को मजबूत करने पर ही ध्यान लगाया जाय | हज़ार सालों की दासता और मैकॉले प्रणाली की कुशिक्षा के कारण हिन्दुओं में हीन भावना भर गयी थी , संघ ने ही कहना सिखाया कि "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं"| आत्मकारक बृहस्पति की मोक्ष, धर्म और लग्न (संघ का शरीर अर्थात भौतिक स्वरुप एवं चरित्र) पर लगभग पूर्ण एवं अतिमित्र दृष्टि तथा सन्तान (शिष्य, स्वयंसेवक) एवं सांसारिक-विद्या के भाव में स्वगृही होकर बैठने के कारण यह सम्भव ही नहीं है कि संघ की अंग्रेजों से कोई सांठ-गाँठ हो सकती थी | किन्तु राजसत्ता के भाव (दशम) पर आत्मकारक की केवल 10% दृष्टि एवं दशम के कारक (चतुर्थ कारक) सूर्य के शत्रुगृही होने के कारण संघ के भाग्य में सीधे राजसत्ता में भागीदारी है ही नहीं , यह भागीदारी केवल तभी सम्भव है जब उन बलवान ग्रहों की दशा हो जिनकी दशम पर अच्छी दृष्टि हो |
यही कारण है कि कमजोर ग्रहों की दशाओं में संघ ने सत्ता हेतु संघर्ष से दूर रहने में ही भलाई समझी, वरना संघ को अंग्रेज नष्ट कर डालते | सेक्युलर कांग्रेस पर अंग्रेजों की उतनी कोपदृष्टि नहीं होती जितनी किसी हिन्दूवादी संगठन पर होती | सावरकर के साथ कैसा सलूक किया ?
किन्तु हानि के बारहवें भाव में स्थित राहू तो अत्यन्त अशुभ था | अतः राहू की महादशा (15-1-1946 से 3-7-1963 ईस्वी) संघ के लिए संकट का काल था | राहू में राहू की अन्तर्दशा भी अशुभ थी क्योंकि राहू पूरी कुण्डली में सबसे अशुभ ग्रह है | अतः राहू की महादशा और अन्तर्दशा में संघ दो बार प्रतिबन्धित हुई, पहले ब्रिटिश काल में पंजाब सरकार ने जनवरी 1948 में चार दिनों के लिए प्रतिबन्ध लगाया, और फिर राहू की ही अन्तर्दशा में 4 फरवरी 1948 को दीर्घकाल के लिए प्रतिबन्धित किया | झूठे आरोपों के आधार पर संघ को नेहरु सरकार ने प्रतिबन्धित कर दिया और संघ के बारे में जमकर दुष्प्रचार किया जो आजतक चला आ रहा है, जबकि नाथूराम गोडसे संघ के स्वयंसेवक नहीं थे और न्यायाधीश जीवन लाल कपूर के अन्तर्गत संघ की जाँच हेतु जो समिति गठित की गयी उसने संघ को निर्दोष सिद्ध किया, उसकी रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है —
"RSS as such were not responsible for the murder of Mahatma Gandhi, meaning thereby that one could not name the organisation as such as being responsible for that most diabolical crime, the murder of the apostle of peace. It has not been proved that they (the accused) were members of the RSS."
किन्तु 1970 तक उस रिपोर्ट को दबाकर रखा गया और संघ को गाँधी-हत्यारा कहा जाता रहा | अंग्रेजों ने भी संघ के साथ ऐसा अन्याय नहीं किया था !
इसका कारण यह है कि संघ की कुण्डली में सबसे बुरा काल था राहू में बृहस्पति की अन्तर्दशा, क्योंकि दोनों में परस्पर अतिशत्रुता है जिस कारण राहू अपना सबसे बुरा फल अपने शत्रु की अन्तर्दशा में ही देंगे | वह काल था 29-8-48 से 27-12-50 तक | ग्यारह जुलाई 1949 को प्रतिबन्ध उठा, यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत पहले ही प्रतिबन्ध हटाने के लिए कह दिया था | सर्वोच्च न्यायालय के दखल करने पर नेहरु ने नयी शर्ते लगा दीं — कि संघ संविधान में विश्वास नहीं करता, राष्ट्रीय झण्डे को नहीं मानता, और अपना कोई लिखित संविधान नहीं दिखाता ! प्रतिबन्ध का असली कारण था नेहरु की यह कामना कि किसी विरोधी संगठन का अस्तित्व ही नहीं रहने दिया जाय | कम्युनिस्ट पार्टी पर भी नेहरु ने प्रतिबन्ध लगा दिया था | समाजवादी पार्टी में जयप्रकाश नारायण को नेहरु ने अपने पक्ष में कर लिया जिन्होंने अपनी ही पार्टी के नेहरु-विरोधियों के विरुद्ध 1952 के चुनाव में खुलकर प्रचार किया था (आज के बहुत से भाजपाई जयप्रकाश नारायण का पुराना इतिहास नहीं जानते, अतः बात हजम नहीं कर पायेंगे)| इस प्रकार सत्ता पर उस व्यक्ति ने पूर्ण कब्जा जमाया जिसके पक्ष में गाँधी के सिवा पूरे कांग्रेस में भी कोई नहीं था !
चीन के आक्रमण काल में संघ की राष्ट्रवादी गतिविधि का प्रचार हो जाने के कारण कांग्रेस द्वारा पिछले दुष्प्रचार का प्रभाव बहुत हद तक नष्ट हुआ और 3-7-63 से बृहस्पति की महादशा आरम्भ होने पर संघ का दुर्योग समाप्त हुआ जो संघ के समूचे इतिहास का सबसे बुरा काल था | बृहस्पति में शनि की अन्तर्दशा के काल (29-7-65 से 12-1-68) में संघ की शत्रु कांग्रेस का नौ राज्यों में सफाया हुआ | संघ की कुण्डली में शनि बृहस्पति के मित्र हैं और 6-7 भावों के स्वामी होकर पराक्रम के तीसरे भाव में उच्च के होकर बैठे हैं | अतः संघ के शत्रुनाशक हैं शनि |
राजसत्ता के लिए दशमांश-वर्ग का बहुत महत्त्व है, यद्यपि इसका सम्पूर्ण वर्ग-बल लग्नकुण्डली की अपेक्षा बहुत कम होता है, जिस कारण पूर्ण बली ग्रह ही दशमांश-वर्ग में फल दे पाते हैं | इसमें बृहस्पति उच्च के होकर चतुर्थ में हैं और सत्ता के दशम भाव पर 98% एवं मित्र दृष्टि है | दशमांश वर्ग के बृहस्पति की अपनी महादशा 1929 से 1944 तक थी जिस दौरान संघ का त्वरित प्रसार हुआ और यह एक राष्ट्रीय स्तर की शक्ति बनकर उभरी |
जब लग्नकुण्डली में राहू की महादशा थी तब नेहरु ने पूरा जोर लगाया कि संघ को पूर्णतया नष्ट कर दिया जाय, किन्तु नहीं कर सके, यद्यपि राहू अत्यन्त अशुभ था | इसी प्रकार जब शुभ बृहस्पति की महादशा थी तब राहू की अन्तर्दशा में ही इसका राजनैतिक अंग भाजपा जनता दल के गठबन्धन में सम्मिलित होकर पहली बार राष्ट्रीय सत्ता में साझीदार बन सका | अतः राहू में शुभत्व भी होना चाहिए ! इसका एक कारण है लग्नकुण्डली में राहू के राशीश चन्द्रमा का बृहस्पति के साथ भावचलित में बैठना, किन्तु चन्द्रमा और बृहस्पति एक ही राशि में नहीं थे, अतः गजकेसरी योग नहीं था (अन्यथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर संघ आजतक मूक और अकर्मण्य नहीं रहती)| किन्तु केवल इतने कारण से राहू इतने शुभ नहीं हो सकते कि 1949 में संघ को नष्ट होने से बचा पाते और 1977 में देश की सर्वोच्च सत्ता में भागीदार बना पाते | इसका कारण है षोडशवर्ग |
राजनीति के मामले में षोडशवर्ग के सबसे महत्वपूर्ण वर्ग अनेक हैं | प्रथम वर्ग (लग्नकुण्डली) भौतिक जीवन हेतु महत्वपूर्ण है, जिसमें राहू अशुभ है | किन्तु होरावर्ग में राहू नीच का होकर आय भाव में है और वहीं नीच का चन्द्र भी है जिस कारण दोनों एक दुसरे का नीचत्व भंग कर रहे हैं, जैसे कि ऋण और ऋण को गुना करने पर धन होता है | अतः धन (होरा) के वर्ग में आय का भाव राहू के लिए अशुभ नहीं रहा, और वहीं स्वगृही केतु के बैठने से राहू का शुभत्व अत्यधिक बढ़ गया | राजनीति बिना धन के नहीं होती |
राजनीति में तीसरे वर्ग "द्रेष्काण" का अत्यधिक महत्त्व है जिसके द्वारा पराक्रम, सैन्य शक्ति, भाईचारा और गठबन्धन आदि देखा जाता है | इसमें राहू अष्टम (मृत्यु) में नीच के हैं, अतः अशुभ भाव में नीचत्व का भंग होकर "विपरीत राजयोग" बना रहा है | विपरीत राजयोग नीचे पटककर अचानक बहुत ऊँचा उठाता है, जैसे कि 1948-49 में प्रतिबन्ध लगाकर और फिर अचानक राष्ट्रीय फलक पर जनसंघ बनाने और खुलकर राजनीति करने का अवसर राहू ने ही दिलाया, जो कि ब्रिटिश राज में सम्भव नहीं था | उसी तरह जब लग्नकुण्डली में बृहस्पति के अन्तर्गत राहू की अन्तर्दशा आरम्भ हुई तब आपातकाल था और संघ प्रतिबन्धित थी, किन्तु उसी राहू में प्रतिबन्ध हटा और पहली बार संघ राष्ट्रीय सत्ता में भागीदार बन सकी | इसमें होरा और द्रेष्काण वर्गों में राहू का शुभ होना कारगर रहा, किन्तु कई और भी वर्ग सहायक थे, जैसे कि सप्तांश (पुत्र, शिष्य, अनुयायी) वर्ग में राहू का उच्च होकर शुभ पञ्चम भाव में बैठना, सप्तविंशांश (बल) वर्ग में मूलत्रिकोण (जो उच्च से नाममात्र कम बल और शुभत्व का होता है) का राहू स्वगृही बुध के साथ शुभ पञ्चम भाव में है जो अत्यधिक बलवान होने का योग है , और षोडशांश वर्ग में स्वगृही राहू छठे भाव में शत्रुनाश का योग बना रहे हैं (षोडशांश वाहन के लिए हैं, अतः राजनीति में बहुत महत्वपूर्ण नहीं है)| राजनीति के दशम वर्ग में राहू छठे भाव में है, किन्तु बुध की राशि में है और बुध अत्यधिक शुभ एवं सर्वाधिक बलवान बृहस्पति द्वारा नियंत्रित है | कुल मिलाकर राहू राजनीति हेतु शुभ और प्रबल है |
राहू ने अपना यह कमाल अगली महादशा शनि में भी दिखाया जब राहू की अन्तर्दशा में बाबरी मस्जिद टूटी और संघ परिवार को अपनी शक्ति कई गुनी बढाने का अवसर मिला जिसमें नरसिम्ह राव की सरकार ने भी परोक्ष रूप से सहायता की (और मुसलमान कांग्रेस पर भड़क गए)| शनि छठे और सातवें भावों के स्वामी होकर मारक (killer) हैं किन्तु तीसरे भाव में बैठकर शुभ हैं और उच्च के हैं | सप्तविंशांश में भी शनि बली हैं, परन्तु राजनीति के दशमांश वर्ग में शनि नीच के होकर लग्न को ही पीड़ित कर रहे हैं, अतः शनि की 19 वर्षीय दशा में उच्च का होने के बावजूद शनि शक्ति में तो अत्यधिक वृद्धि करा दिए परन्तु सत्ता से दूर रखे |
उसके बाद बुध की महादशा 18-6-1997 से 15-12-2013 तक रही जिसमें पहली बार संघ के लोग प्रधानमन्त्री पद तक पँहुच पाए | लग्नकुण्डली में बुध उच्च के हैं और भावचलित में लग्नस्थ हैं | राशिचक्र में बुध दूसरे घर में चले गए, पहले घर में रहते तो पञ्च-महापुरुष योग बनाकर वाजपेयी जी को चक्रवर्ती बनाकर पूर्ण बहुमत का अखण्ड साम्राज्य दिलाते | शत्रु गृही सूर्य के साथ रहने के कारण बुद्ध के उच्चत्व को थोड़ा सा दोष लग रहा है | यही कारण है कि कुछ सेक्युलर दलों की वैशाखी के भरोसे भाजपा को सत्ता तक पँहुचा दिए |
इसमें कई षोडशवर्गों का भरपूर योगदान रहा | बलाबल के सप्तविंशांश वर्ग में बुध स्वगृही होकर शुभ पञ्चम भाव में हैं| राजनीति के दशमांश वर्ग में बुध स्वयं तो शुभ नहीं हैं किन्तु अत्यधिक शुभ और केन्द्रस्थ उच्च के बृहस्पति के पूर्ण नियंत्रण में रहकर राजसत्ता के दशम भाव में हैं | नवांश वर्ग में अतिमित्रगृही लग्नेश के साथ स्वयं भी अतिमित्रगृही होकर उसी दशम भाव में हैं | सप्तांश वर्ग में बुध उच्च के होकर धर्म के भाव में हैं, जिस कारण बुध की महादशा में ही संघ परिवार के धर्मानुरागी अनुयायियों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और सेक्युलरों द्वारा भरपूर विरोध के बावजूद विश्व की सबसे बड़ी और शक्तिशाली स्वयंसेवी संस्था बनी, जिस कारण संसार का अधिकाँश धनबल और सैन्यबल जिन सम्प्रदायों के हाथों में है उनके द्वारा धर्मान्तरण के प्रयासों को संघ नाकाम करने में संघ काफी हद तक सफल रहा | संघ नहीं होती तो हिन्दुओं का क्या होता ?
चतुर्थांश वर्ग है भाग्य (सुख, मैत्री, आदि) का, उसमें बुध मूलत्रिकोणस्थ होकर धनेश एवं विद्या के स्वामी होकर पञ्चम में हैं, जिस कारण धन और विद्या के क्षेत्रों में देश का एक बड़ा वर्ग संघ परिवार का मित्र बना | द्रेष्काण वर्ग में बुध उच्च के होकर छठे में हैं, किन्तु 3-6 के स्वामी हैं, जो विपरीत राजयोग है | अतः शत्रुहन्ता योग है | किन्तु होरा में बुध निर्बल हैं, अतः सत्ता के बावजूद पूँजीपति वर्ग का अल्प सहयोग मिल पाया |
बुध के सम्बन्धियों की जबतक अन्तर्दशा रही तबतक वाजपेयी जी का राज रहा, बुध के अतिशत्रु चन्द्रमा की अन्तर्दशा में चुनाव हार गए | उसके बाद भी लगातार या तो शत्रु ग्रहों की अन्तर्दशा रही या उन ग्रहों की जिनसे कोई सम्बन्ध नहीं था | अतः भाजपा सत्ता से बाहर रही |

वर्तमान

दिसम्बर 2013 में केतु की महादशा आरम्भ हुई | उसी मास नरेन्द्र मोदी की कुण्डली में प्रचण्ड राजयोग आरम्भ हुआ | संघ की कुण्डली में केतु षष्ठ (शत्रु, रोग) के भाव में हैं, किन्तु शुक्र और शनि के पूर्ण नियंत्रण में हैं — उच्च के शनि की 82% समदृष्टि केतु पर है और स्वगृही शुक्र की 58% अतिमित्र दृष्टि केतु पर है | शुक्र और शनि एक दूसरे के प्रति सम हैं, अतः उन दोनों का प्रभाव जुड़ रहा है, जो अत्यधिक प्रचण्ड प्रभाव केतु पर बना रहा है | शुक्र और शनि पराक्रम के तीसरे भाव में हैं और शत्रु के भाव में स्थित केतु को नियन्त्रित कर रहे हैं | शनि 6 और 7 भावों के स्वामी हैं और शुक्र तीसरे (शक्ति) एवं दशम (सत्ता) के स्वामी हैं | शनि सर्वाधिक बली होकर शुक्र की ही राशि में हैं | अतः शक्ति और सत्ता की प्राप्ति तथा शत्रुनाश का प्रचण्ड राजयोग बन रहा है जो उनके निकटतम सम्बन्धी केतु द्वारा ही सबसे अधिक फल दे सकता है |
सत्ता के स्वामी शुक्र का सर्वतोभद्र वेध "न" पर है, और राहू का भी वेध "न" पर है, राहू भी शुभ ही है जैसा कि पहले ही दिखा चुके हैं (यह संक्षिप्त वर्णन है, अन्य वर्गों के वेधों का भी योगदान है)| अतः केतु की दशा आरम्भ होते ही संघ परिवार द्वारा "न" नाम के व्यक्ति के माध्यम से सत्ता पर पूर्ण आधिपत्य का काल आरम्भ होने का योग बनता है, मोक्ष के भाव में राहू है और शुक्र शक्ति एवं सत्ता के भावों के स्वामी हैं, अतः "न" नाम के उस व्यक्ति को संघ सत्ता में बिठाने के लिए ईच्छा न रहने पर भी विवश होगा जो परिवार से दूर रहने वाला (प्रचारक) हो और जिसकी कुण्डली में शक्ति और सत्ता का प्रबल राजयोग भी हो | प्रकार राहु ने संघ को प्रतिबंधित करके फिर ऊपर उठाया, उसी प्रकार राहु से विद्ध नरेंद्र मोदी भी आरम्भ में बुद्ध और अम्बेडकर का प्रचार करेंगे, किन्तु अंतिम परिणाम सनातन धर्म हेतु ही शुभ होगा ।

भविष्य

केतु की महादशा 29-9-2020 को समाप्त होने के बाद उस शुक्र की अपनी महादशा बीस वर्षों के लिए (24-2-2040 तक) आरम्भ होने जा रही है जिसके सम्बन्ध मात्र से केतु इतना कमाल दिखा रहा है | शुक्र की विशेषता यह है कि कोई ग्रह शुक्र का शत्रु नहीं है ! अतः पूरी महादशा शुभ रहेगी, यद्यपि अन्तर्दशा-कारक ग्रहों के बलाबल के अनुरूप उतार-चढ़ाव होता रहेगा |
(यह अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन है | इसमें उपरोक्त विधि के अनुसार सभी वर्गों के फलों का समावेश करके और उसमें वर्षफलों को सम्मिलित करके विस्तृत फलादेश किया जा सकता है | विस्तृत लेख लोग नहीं पढ़ते, अतः इतना ही पर्याप्त है | विश्व के सबसे बड़े हिन्दूवादी संगठन का प्रबल राजयोग 2040 ईस्वी तक है, क्या अभी इतना ही जान लेना पर्याप्त नहीं है? तबतक प्रचण्ड राजयोग वाले छत्तीस लाख बच्चे बड़े होकर 37 वर्ष के हो जायेंगे, उसके बाद संघ नहीं भी बचेगी तो क्या अन्तर पडेगा ? उससे अधिक शक्तिशाली संघ बन जायेंगे, सनातनियों के भी और असुरों के भी, और घमासान मचेगा — पूरे विश्व में |

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