सॉफ्टवेयर के प्रयोग की विधि (हिन्दी / HINDI )
23 जून 1757 (वर्तमान स्टैण्डर्ड कैलेंडर के अनुसार 4 जुलाई) के प्लासी युद्ध के विवरण हेतु देखें : http://en.wikipedia.org/wiki/Battle_of_Plassey (पलाश-वन से निःसृत "पलाशी")।
(अपने कंप्यूटर में वर्शन-6.7.8 के बाद का Kundalee सॉफ्टवेयर इनस्टॉल करने के बाद इस लेख में दी गयी विधि के अनुसार सॉफ्टवेयर का प्रयोग करने पर ही प्रस्तुत लेख का पूरा लाभ मिल सकेगा । Kundalee सॉफ्टवेयर के स्क्रीनशॉट को कैप्चर करके प्रस्तुत वेबसाइट पर अपलोड करने में बहुत समय लगता है , अतः प्रस्तुत लेख के अनुसार Kundalee सॉफ्टवेयर का प्रयोग करने पर प्रस्तुत लेख पूरी तरह स्पष्ट होगा, और लेख तैयार करने में भी कम समय लगेगा । )
Kundalee सॉफ्टवेयर को स्टार्ट करने पर सबसे पहले इनपुट डाटा फॉर्म खुलता है, जिसमे सबसे ऊपर दो कॉम्बो बॉक्स हैं। दाहिनी ओर के कॉम्बो बॉक्स में medini (मेदिनी) चुन लें, तब बाँयी और के कॉम्बो बॉक्स में VidishaDeshaChart (विदिशा देश चार्ट) चुनें और फिर उसके नीचे YEAR के खाने में 1757 टाइप कर दें। Kundalee सॉफ्टवेयर में मेदिनी ज्योतिष का चयन करने पर अक्षांश और रेखांश में कभी भी कोई परिवर्तन न करें और डिफ़ॉल्ट ही रहने दें। समय, दिन और मास भी न बदलें, केवल वर्ष बदलें, वह भी केवल बाँयी और का। वर्षफल हेतु सबसे नीचे के बड़े खाने में डिफ़ॉल्ट "1" ही रहने दें, किन्तु यदि अश्विनी के बाद का कोई नक्षत्र प्रवेश चक्र वांछित हो तो उस नक्षत्र की संख्या "1" के स्थान पर भर दें (संख्या हेतु 27 नक्षत्रों की प्रणाली का प्रयोग करें)।
प्लासी के युद्ध की जाँच हेतु वर्ष में 1757 टाइप करें और फिर इनपुट डाटा फॉर्म के दाहिनी और ऊपर "SHOW" बटन दबाएँ। आउटपुट में "स्विचबोर्ड' मिलेगा, जिसमे "MAIN" बटन दबाने पर एक और फॉर्म खुलेगा उसमे षोडशवर्ग खाने में डिफ़ॉल्ट "1" रहने दें और षोडशवर्ग बटन दबा दें : विस्तृत कुण्डली और सम्बंधित सारिणीयाँ प्रकट होंगी और उसके पीछे वही चक्र मानचित्र पर मिलेगा। यदि किसी अन्य षोडश वर्ग का चक्र चाहिए तो षोडशवर्ग खाने में डिफ़ॉल्ट "1" के बदले उस वर्ग की संख्या टाइप करें।
मेदिनी ज्योतिष की प्राचीन विधि
§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§ पृथ्वी-चक्र आरम्भ : §§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§
पृथ्वी चक्र : वर्षफल 1757
D-1 (लग्न कुण्डली)
1757 ईस्वी की D-1 में भारत का पूना से पूर्णिया तक के भाग से दक्षिण का क्षेत्र अष्टम भाव में था। अष्टमेश शुक्र उच्चस्थ होकर षष्ठ में थे जो अत्यंत अशुभ होता है। शुक्र के साथ नीच के बुध भी थे। सामान्यतः उच्च एवं नीच ग्रह एक भाव में हों तो दोनों का उच्चत्व तथा नीचत्व भंग हो जाता है, लेकिन प्रस्तुत मामले में एसा संभव नहीं था क्योंकि ग्रहयुद्ध में उच्च के शुक्र से उनसे केवल साढ़े आठ कला(मिनट) पर स्थित नीच के निर्बल बुध थे। फलस्वरूप षष्ठ भाव में नीच के बुध नीच-भंग राजयोग नहीं दे पाए, किन्तु त्रिक भावस्थ रहने के कारण उच्च के शुक्र का उच्चत्व भंग हुआ। यदि गृह युद्ध नहीं होता तो दोनों गृह उच्च नीच भंग कराकर सामान्य बन जाते। शुक्र के दोनों भाव लग्न एवं अष्टम बिगड़े। लग्न की तुलना में अष्टम बहुत अधिक अशुभ होता है, अतः स्पष्ट है कि अष्टम भाव का फल अत्यधिक बुरा था। शुक्र के प्रभाव में अशुभ भाव थे षष्ठ जहाँ शुक्र अतिशत्रुभाव से बैठे थे, अष्टम जिसके शुक्र स्वामी थे, और द्वादश जिसके स्वामी बुध पर युद्ध द्वारा शुक्र का आधिपत्य था। विश्व में सर्वाधिक अशुभ फल था षष्ठ भाव का जिसमे शुक्र शत्रुभाव से स्थित थे, लेकिन षष्ठ भाव में ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैण्ड थे जो उस समय तक शेष विश्व से कटे थे। अतः अष्टम भावस्थ भारत तथा द्वादश भावस्थ अमेरिका ज्ञात विश्व में सबसे बुरे भावों में थे। सर्वतोभद्र चक्र में अमेरिका के "अ" पर शुक्र का कोई वेध नहीं था,जबकि शुक्र से बंगाल का "व / ब" विद्ध था । भारत के "भ" अक्षर पर अतिशुभ शनि का वेध था, अतः भारत में केवल बंगाल को ही क्षति की संभावना थी। समस्त 12 भावों में शुक्र की सबसे अधिक शत्रु दृष्टि (36' या 60%) धनभाव पर थी, अतः शुक्र ने जहां क्षति पंहुचायी वहां सबसे अधिक क्षति बंगाल के राजस्व पर कब्जा जमाकर धनभाव को ही पंहुचायी। धनेश मंगल शुक्र के शत्रु होकर शुक्र के साथ बुरे भाव में थे, और धन भाव में त्रिषडेश बृहस्पति अत्यंत अशुभ होकर थे। अतः पूरे संसार का ही धन भाव खराब था। लेकिन उपरोक्त कारणों से बंगाल के लिए धन का विषय और भी अधिक खराब था, जबकि आय भाव में इंग्लैंड स्थित था और आयेश सूर्य उच्चस्थ होकर सप्तम भाव में इंग्लैंड के लिए अत्यधिक शुभ थे। आय भाव में और भी कई देश थे, इंग्लैंड को ही बंगाल के पतन से क्यों लाभ मिला इसका खुलासा यूरोप के देश-चक्र से मिलेगा। अभी भारत के देश-चक्र को देंखें।
D-2 (द्वादशभाव की होरा कुण्डली)
द्वादश-भाव की होरा कुण्डली बनाने के लिए स्विचबोर्ड में 'MAIN' बटन दबाने पर जो फॉर्म खुले उसमे षोडशवर्ग खाने में '1' को हटाकर '2' टाइप करें और 'षोडशवर्ग' बटन दबा दे। मानचित्र पर कुण्डली बन जायेगी और अलग से विस्तृत होरा चक्र एवं उसका दृष्टि चक्र भी बन जाएगा। बंगाल तीसरे भाव में मिलेगा, जहाँ माउस क्लिक करने पर बंगाल पर ग्रहदृष्टि की सारिणी बनेगी। बंगाल पर सबसे अधिक 85% शत्रु दृष्टि मंगल की है जो उस वर्ष होरा कुण्डली के लग्नेश होने के कारण धन को प्रभावित करने वाले सबसे प्रमुख कारक हैं और सबसे बुरी द्रृष्टि बंगाल के आस पास के इलाकों पर डालते हैं। बंगाल के तीसरे भाव के स्वामी बुध त्रिषडेश होने के कारण अत्यंत अशुभ तो हैं ही, ग्रह युद्ध में शुक्र द्वारा पराजित हैं। शुक्र धनेश और सप्तमेश होने के कारण मारक हैं। सामान्यतः धनेश आय भाव में हों तो अच्छा फल देते हैं, लेकिन यहाँ तीन ग्रह एक साथ हैं अतः सबका सम्मिलित फल देखना चाहिए। ये तीनो ग्रह 1, 2, 3, 6, 7, 8 भावों के स्वामी हैं। लग्नेश मंगल भी अशुभ फल दे रहें हैं क्योंकि बंगाल पर 85% शत्रु दृष्टि है। शेष भावों का सम्मिलित फल धन हेतु अशुभ ही बनता है। इसके विपरीत इंग्लैंड पंचम भाव में हैं जहां चतुर्थेश चन्द्र हैं। अतः इंग्लैंड की स्थिति ज्ञात संसार में सबसे अच्छी है (उससे अच्छी ऑस्ट्रेलिया की है जो ज्ञात विश्व से बाहर था)।
D-10 (दशमांश कुण्डली)
उपरोक्त विधि द्वारा अन्य वर्गों के चक्र मानचित्र पर बनाए जा सकते हैं। राज्यों के संघर्ष में दशमांश वर्ग का महत्व है। बंगाल सप्तम भाव में है, सप्तमेश शुक्र 8 एवं 11 के स्वामी अशुभ बुध के साथ उच्च सूर्य सहित षष्ठ भाव में हैं। उच्च सूर्य षष्ठ भाव में अशुभ हैं, और शुक्र के अतिशत्रु भी हैं। अतः बंगाल का भाग्य खराब है। उपरोक्त विधि से विस्तृत फल स्वयं बनाकर देखें।
पृथ्वी चक्र : नक्षत्र फल
सभी 27 नक्षत्रों की जाँच
व्यक्तिगत जातक कुण्डली में वर्षफल के बाद का स्तर मासफल का है, लेकिन मेदिनी ज्योतिष में मासफल के स्थान पर सूर्य के नक्षत्र प्रवेश काल की कुण्डली का फल देखा जाना चाहिए। एक वर्ष में 27 नक्षत्रों में सूर्य का सञ्चार होता है। वर्षफल में जो फल है, वैसा ही फल जिस नक्षत्र प्रवेश चक्र में है, वही नक्षत्र फल दायक होगा। अतः वर्ष फल देखने के बाद भरणी, कृत्तिका, आदि नक्षत्रों का बारी-बारी से फल जाँचना चाहिए। Kundalee सॉफ्टवेयर के medini फोल्डर में MeruWorldChart चुनने पर आरंभिक डाटा इनपुट फॉर्म में सबसे नीचे default "1" मिलेगा जो अश्विनी-प्रवेश (= वर्ष-प्रवेश) का सूचक है। "1" के स्थान पर वांछित नक्षत्रों की संख्या बारी-बारी से टाइप करके सभी सत्ताइसों नक्षत्रों के प्रवेश कालीन D-1 (लग्न कुण्डली) की जाँच करने पर निष्कर्ष निकलता है कि जिन नक्षत्रों में बंगाल शुभ भाव में हो या बंगाल का भावेश शुभ हो उन्हें छांटने पर केवल दो नक्षत्र भरणी और पुनर्वसु ऐसे बचते हैं जो सर्वाधिक अशुभ सिद्ध होतें हैं।
भरणी-प्रवेश (= 2) तथा पुनर्वसु-प्रवेश (=7) की विश्व-कुण्डलियों (D -1) में बंगाल बारहवें भाव में था। लेकिन भरणी-प्रवेश लग्न-कुण्डली (D-1) में बारहवें भाव में कोई ग्रह नहीं था, जबकि पुनर्वसु-प्रवेश कुण्डली में षडायेश (6, 11 ,के ईश) मंगल बारहवें भाव में थे। षडायेश सर्वाधिक अशुभ होता है। अतः भरणी-प्रवेश की अपेक्षा पुनर्वसु-प्रवेश अत्यधिक अशुभ था। दूसरा मानदंड है भावेश : पुनर्वसु-प्रवेश में भावेश शुक्र 5,12 के ईश होकर द्वितीय भाव में अस्त थे जबकि भरणी-प्रवेश में भावेश शुक्र 5,12 के ईश होकर दशम भाव में थे। दशम की अपेक्षा दूसरे भाव में रहना अधिक अशुभ है। अतः यहाँ भी पुनर्वसु-प्रवेश अधिक अशुभ है। तीसरा मानदंड है भावेश का ईश : पुनर्वसु-प्रवेश में शुक्र के ईश चन्द्र अष्टम में थे, जबकि भरणी-प्रवेश में शुक्र के ईश ब्रिहस्पतिकेंद्रेश दोष से युक्त तो थे लेकिन पञ्चम भाव में थे। अतः इस कसौटी पर भी पुनर्वसु-प्रवेश अधिक अशुभ है। चौथी कसौटी है भावेश के संबंधी। पुनर्वसु-प्रवेश में तृतीयेश शत्रुगृही सूर्य में शुक्र अस्त थे, जबकि भरणी-प्रवेश में शुक्र के साथ थे षडायेश मित्रगृही मंगल। भरणी-प्रवेश के षडायेश मित्रगृही मंगल पुनर्वसु-प्रवेश के तृतीयेश शत्रुगृही सूर्य से अधिक अशुभ यदि मान भी लियें जाएँ तो सभी कसौटियों तो मिलाकर देखने पर बंगाल के लिए पुनर्वसु-प्रवेश अतुलनीय रूप से सर्वाधिक अशुभ थे इसमें कोई संदेह नहीं। बारहवें भाव पर अन्य ग्रहों की दृष्टियों को भी देखना चाहिए, लेकिन सुदर्शन चक्र अध्याय में पराशर ऋषि ने कहा है की किसी भाव में ग्रह हो तो पहले उससे और भावेश से फल कहना चाहिए, भाव में ग्रह न हो तो अन्य ग्रहों की दृष्टियों का लेखा करना कहना चाहिए (जिनमे सबसे अधिक महत्वपूर्ण भावेश होता है)।
Kundalee सॉफ्टवेयर (सूर्यसिद्धान्तीय) के अनुसार पुनर्वसु का काल 1757 ईस्वी को 4 जुलाई, 8:06:20 बजे से 18 जुलाई, 9:35:23 बजे तक था (मानचित्र में नीचे बाँयी और देखें)। यह 20वीं शती का स्टैण्डर्ड कैलेंडर के अनुसार है। इसमें 13 दिन घटाने पर जूलियन कैलेंडर मिलेगा। अतः जूलियन कैलेंडर के अनुसार पुनर्वसु का काल 21 जून से 5 जुलाई 1757 तक था। बंगाल के लिए पूरे वर्ष में यह सर्वाधिक अशुभ काल था। जिन्हें संदेह हो वे सभी 27 नक्षत्रों के फल स्वयं जाँच सकते हैं। इंग्लैंड में ग्रेगोरियन रिफार्म 1752 में स्वीकृत किया गया, जब जूलियन कैलेंडर में 11 दिन जोड़ा गया था। 19वीं शती में एक दिन और जोड़ा गया, और 20वीं शती में फिर एक दिन जोड़ा गया। ब्रिटिश रिकॉर्ड के अनुसार प्लासी का युद्ध 23 जून 1757 को हुआ था जो वर्तमान स्टैण्डर्ड कैलेंडर के अनुसार 1757 ईस्वी को 4 जुलाई, 8:06:20 बजे है । पुनर्वसु में इस युद्ध का होना उपरोक्त विधि को सही सिद्ध करता है (पिछले कुछ दशकों से इस विधि की जाँच चल रही है, सभी प्रमुख घटनाओं की जाँच में यह विधि हमेशा सही पायी गयी है)।
पुनर्वसु-प्रवेश D -1 का फलादेश
बंगाल का हानि-भाव में रहना बंगाल के लिए हानि का सूचक है। हानि-भाव में सेनापति-कारक मंगल हैं, जो शत्रु एवं आय भावों के अधिपति हैं। इससे यह पता चलता है की किन कारणों से बंगाल को हानि हो सकती है : शत्रु द्वारा राजस्व (आय) की हानि, वह भी मंगल के कारण युद्ध द्वारा। ग्रहों में सूर्य और चन्द्र राजा कहे गए हैं। बंगाल के भावेश शुक्र के अधिपति होकर चन्द्र मृत्यु भाव में हैं, और शुक्र को अस्त करने वाले तृतीयेश शत्रुगृही सूर्य भी अशुभ हैं। अतः राजा को क्षति का स्पष्ट संकेत है ( सर्वतोभद्र चक्र में चंद्रमा से "स" अक्षर विद्ध भी है, जो की राजा सिराजुद्दौला के नाम का पहला अक्षर था। स्वर "ई" केतु से विद्ध था जो षष्ठेश था किन्तु नवम में था, अतः पूरी तरह अशुभ नहीं था)।
पुनर्वसु-प्रवेश D -10 का फलादेश
Kundalee सॉफ्टवेयर के मेदिनी ज्योतिष द्वारा मानचित्र पर अन्य वर्गों को बनाने के लिए स्विचबोर्ड पर 'END ALL' बटन दबाएँ, फिर इनपुट डाटा फॉर्म पर 'SHOW' बटन दबाकर स्विचबोर्ड को पुनः प्रकट करें (ताकि पुराने सभी अस्थायी फाइल memory से मिट जाएँ) । फिर स्विचबोर्ड पर 'MAIN' बटन दबाकर षोडश वर्ग की संख्या '10' लिखे और उसका बटन दबाएँ, दशमांश वर्ग के सारे आवश्यक पृष्ठ खुल जायेंगे । 1757 ईस्वी की पुनार्वसारम्भ दशमांश कुण्डली में बंगाल दशम भाव में मिलेगा जिसमे कोई ग्रह नहीं है और भावेश शुक्र अष्टम में मिलेगा। फल अशुभ है। दशमांश वर्ग में सबसे महत्वपूर्ण भाव लग्न और दशम होता है। दशम तो अशुभ है ही, लग्न में भी द्वादशेश चन्द्र बैठें हैं। लेकिन यह पूरे संसार का फल बताएगा। दशम भाव में स्थित क्षेत्र से उस क्षेत्र का फल मिलेगा। किन्तु दृष्टि द्वारा अन्य ग्रहों के प्रभाव भी देखे जा सकते हैं। जैसे कि चंद्रमा की बंगाल पर शत्रु दृष्टि है, जिससे स्पष्ट है की द्वादशेश चन्द्र लग्नस्थ होकर पूरे संसार को तो हानि पँहुचा ही रहें हैं, बंगाल को अधिक हानि पँहुचा रहें हैं। धन भाव में योग कारक मंगल हैं, लेकिन बंगाल पर उनकी अशुभ दृष्टि है। धनेश बुध हानि भाव में हैं, अतः कुल हानि और भी अधिक है। अतः राज्य (D-10) के माध्यम से बंगाल को आर्थिक क्षति (अशुभ भाव-2) का योग बनता है।
पुनर्वसु-प्रवेश D -2 का फलादेश
धन हेतु द्वादश-भाव वाली होरा कुण्डली (D-2) देखें। बंगाल दशम भाव में है जिसमे अति-शत्रु बृहस्पति वक्री एवं 5 तथा 8 के स्वामी हैं। बंगाल के भावेसश शुक्र नीच, अस्त तथा तृतीयेश होकर धन भाव में हैं। वहां सूर्य तथा चन्द्र भी हैं, अतः भावेश के संबंधी होने के कारण प्रभावी हैं। सूर्य लग्नेश तथा मित्र गृही हैं, लेकिन बंगाल पर उनकी अतिशत्रु दृष्टि है और इंग्लैंड उनकी सिंह राशि में है। इंग्लैंड के भाव में धन तथा आय भावों के स्वामी होकर अतिमित्रगृही बुध भी हैं। अतः इंग्लैंड के लिए धन-वर्षक योग है, और बंगाल हेतु धन-नाशक। दुर्भाग्यवश द्वादश-भाव वाली होरा कुण्डली बनाने की परम्परा लोग भूल चुके हैं।
पुनर्वसु-प्रवेश D -4 का फलादेश
चतुर्थांश वर्ग (D-4) को भाग्य का वर्ग कहा गया है। किन्तु सारे षोडश वर्ग और समूचा ज्योतिष शास्त्र तो भाग्य से ही सम्बंधित है। अतः यह जानना आवश्यक है की चतुर्थांश वर्ग किस क्षेत्र में भाग्य का सूचक है। यह अनेक कुंडलियों की जाँच से स्वतः स्पष्ट होता चला जाएगा।
बंगाल बारहवें भाव में है और उस भाव में अत्यधिक अशुभ षडायेश (6 + 11 के स्वामी) मंगल बैठें हैं। लेकिन भावेश शुक्र दशम भाव में 5 और 12 के ईश होकर उच्च के हैं। अर्थ समझना कठिन नहीं है : 12वें भाव को अशुभ मंगल से हानि पँहुच रही है, किन्तु भावेश के कारण यह हानि अन्य क्षेत्रों में हुई, राज्य की हानि नहीं हुई (युद्ध हारने के बाद भी बंगाल का ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा राजनैतिक अधिग्रहण नहीं किया गया)। बंगाल हेतु अन्य ग्रहों में सबसे अशुभ धनेश चंद्रमा हैं जिनकी शत्रु दृष्टि है। अतः धन की क्षति है, राज्य की नहीं।
पुनर्वसु-प्रवेश D -9 का फलादेश
जातक में नवांश वर्ग सामान्यतः पत्नी को दर्शाता है। लेकिन बृहत् पराशर होरा शास्त्र के दशाफलाध्याय में नवांश का सम्बन्ध व्यापक रूप से समस्त विषयों से दर्शाया गया है। वास्तव में इसका सम्बन्ध पत्नी नहीं, धर्मपत्नी से है जिसके बिना धर्म (यज्ञ) संभव नहीं। अतः चतुर्थांश की तरह यह भी भाग्य से सम्बंधित एक व्यापक प्रभाव वाला वर्ग है और अधिक विंशोपक बल के कारण चतुर्थांश से बहुत अधिक महत्व पूर्ण है । प्रस्तुत नवांश कुण्डली में बंगाल षष्ठ भाव में फँसा है और भावेश शुक्र अशुभ षडायेश होकर सप्तम में मारक हैं। शुक्र पर उसके राशीश बुध और उनके साथ बैठे चंद्रमा का प्रभाव है, जो बारहवें भाव में हैं : चंद्रमा विपरीत राजयोग कारक हैं लेकिन बंगाल पर 90% शत्रुदृष्टि है। बंगाल हेतु नवांश वर्ग के सभी प्रमुख प्रभाव घातक ही हैं। लेकिन इंग्लैंड हेतु नवांश वर्ग अत्यधिक शुभ है : इंग्लैंड भाग्य भाव में हैं और भाग्येश सूर्य उच्च के हैं। मंगल सम राहू वैरी होकर फ्रांस द्वारा उत्पात करा रहे थे , लेकिन स्वामी सूर्य के कारण इंग्लैंड का सितारा बुलंद था।
पुनर्वसु-प्रवेश D -3 का फलादेश
जातक में द्रेष्कान भाई और पराक्रम के लिए है। मेदिनी ज्योतिष में इसे पराक्रम के लिए माना जा सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए की गौण वर्गों की तुलना में इसका विंशोपक अधिक है। प्रस्तुत उदाहण में बंगाल 12वें भाव में है, जिसमे अशुभ षडायेश मंगल हैं। भावेश शुक्र भी बुरी अंगात में हैं : अतिशत्रु सूर्य और उनमे अस्त शनि के साथ अतिशत्रु बृहस्पति शुक्र कजो पीड़ित कर रहें हैं। इतने अशुभ प्रभावों के बावजूद भाग्य भाव में बैठे पंचमेश शुक्र ने पराक्रम दिखाने का पूरा प्रयास किया लेकिन अशुभ मंगल, सूर्य और बृहस्पति के कारण अकेले शुक्र कुछ नहीं कर पाए और भाग्य ने साथ नहीं दिया।
मेदिनी ज्योतिष में अन्य वर्गों का प्रभाव
मेदिनी ज्योतिष में 12, 16, 20, 40, 45 आदि वर्गों का क्या प्रभाव है इसपर किसी ने व्यवस्थित रूप से ध्यान नहीं दिया है। शोध-कर्ताओं से आग्रह है की इसपर व्यापक शोधकार्य आरम्भ करने का प्रयास करें।
पृथ्वी चक्र : अर्धांश-फल (12 घंटों का)
वर्षफल और नक्षत्रफल के बाद का स्तर है अर्धांश-फल का। सूर्य के प्रत्येक आधे अंश पर बनी कुण्डली अर्धांश कुण्डली है जो लगभग 12 घंटों का फल बताती है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल सूक्त 164 में इन्हें सूर्य के 720 पुत्र कहा गया है जो 12 अरों वाले (राशियों) वाले कालचक्र में पिरोयें रहतें हैं। एक वर्ष में 720 अर्धांश होते हैं। ये सूर्य देव के चैतन्य "पुत्र" हैं जो चराचर समस्त विश्व को फल प्रदान करते हैं। Kundalee सॉफ्टवेयर में नक्षत्र फल बनाने के बाद मानचित्र पर "No. of Half Day" खाने में उस अर्धांश की संख्या भरें जिसका चक्र देखना हो, और फिर " Half Day Chart" का बटन दबा दें, चक्र प्रकट हो जाएगा।
पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य का प्रवेश हुआ, जब सूर्य एकदम 80 अंशों पर थे। 80 में अर्धांश से पूरा भाग लगता है, अतः पुनर्वसु का पहला अर्धांश भी उसी क्षण आरम्भ हुआ था। दूसरा अर्धांश तब आरम्भ हुआ जब सूर्य 80.5 अंशों पर चले गए। इस प्रकार सभी अर्धांशों का फल मानचित्र पर बनाकर देखें। पायेंगे की पहले अर्धांश का ही फल सबसे अशुभ है, जिसका काल था 1757 ईस्वी को 23 जून, 8:06:20 बजे से 20:46:21 बजे तक (पहले अर्धांश का अंत काल जानने के लिए दूसरे अर्धांश का आरम्भ काल ज्ञात करें)। उक्त प्रथम अर्धांश में सभी षोडश वर्गों का फल वही है जो पुनर्वसु प्रवेश कुंडलियों का है, अतः यहाँ फल दोहराने की आवश्यकता नहीं। किन्तु एक विशेषता है जो अगले अनुच्छेद में कहेंगे।
ग्रहों का फलकाल
मानचित्र के बाँए हिस्से में एक पीले खाने में ग्रहों का प्रभाव-काल दर्शाया गया है जिसका शीर्षक है "कुल खण्डकाल" (दिन, घंटा, मिनट, सेकंड में)। उक्त प्रथम अर्धांश के मानचित्र में निम्नलिखित काल दर्शाए गए हैं (सारे के सारे वर्तमान स्टैण्डर्ड कैलेंडर के भारतीय मानक समयानुसार हैं, अतः 4 - 5 जुलाई 1757 मानेंगे, जिसमे 11 दिन घटाने पर तत्कालीन ब्रिटिश कैलेंडर के दिन 23 - 24 जून 1757 प्राप्त होंगे, मध्यरात्रि के पश्चात दिन परिवर्तन) :
ग्रहों का फलकाल (भारतीय मानक समयानुसार) | |||||||
आरम्भ | 08:06:20 | §§§§§ | राहु | 12:12:13 | |||
मंगल | 09:22:15 | §§§§§ | गुरु | 15:07:10 | |||
बुध | 10:24:45 | §§§§§ | चन्द्र | 17:26:40 | |||
सूर्य | 10:55:12 | §§§§§ | केतु | 18:32:11 | |||
शुक्र | 11:10:43 | §§§§§ | शनि | 18:40:02 |
पहले ही हम देख चुके हैं की मंगल सर्वाधिक अशुभ ग्रह है : द्वादश में षडायेश । अर्धांश का आरम्भ सुबह 8:06:20 बजे हुआ, जब मंगल का प्रभावकाल था। ब्रिटिश रिकॉर्ड के अनुसार (विकिपीडिया आलेख देखें) युद्ध का आरम्भ 8 बजे सुबह हुआ लेकिन 11 बजे तक कोई निर्णायक परिणाम नहीं निकला। 11 बजे के बाद से पासा अंग्रेजों के पक्ष में पलटने लगा। 9:22:15 बजे मंगल का प्रमुख प्रभावकाल था जब ज्योतिष के अनुसार अंग्रेजों के पक्ष में मोड़ आना चाहिए। किन्तु 10:24:45 में स्वगृही बुध का समय था। इन उताड़-चढ़ावों के बाद निर्णायक मोड़ आया सूर्य के समय 10:55:12 और उसमे अस्त शुक्र के समय 11:10:43 में, जब ब्रिटिश रिकॉर्ड के अनुसार अंग्रेजों के पक्ष में पासा पलट गया। 2 बजे दोपहर तक व्यव्याहारिक रूप से युद्ध समाप्त हो चुका था, जो कि सूर्य और शुक्र का काल था। बंगाल के भावेश शुक्र द्वितीय गृह में समगृही थे और 5 एवं 12 के स्वामी थे, किन्तु तृतीयेश तथा शत्रुगृही सूर्य में शुक्र अस्त थे, अतः सूर्य का ही फल प्रभावी था और सूर्य ही बंगाल के भावेश का दायित्व निभा रहे थे । बुध योगकारक थे : लग्न में लग्नेश और चतुर्थेश, लेकिन सूर्य बुध के शत्रु तथा शुक्र के अतिशत्रु होने के कारण बंगाल के लिए अशुभ फल ही दे रहे थे, जिस कारण शुभ बुध का काल भी बंगाल के लिए शुभ सिद्ध नहीं हुआ, यद्यपि बुध ने हार नहीं होने दी : बंगाल की हार सूर्य एवं शुक्र के काल में हुई : दोपहर 11 बजे से। बृहस्पति के काल तक नवाब ने युद्ध का मैदान छोड़ दिया । बृहस्पति की बंगाल पर किसी भी ग्रह से काफी अधिक अति-शत्रु दृष्टि थी, और वे दो केन्द्रों के स्वामी होकर केन्द्राधिपति दोष से ग्रस्त थे, वक्री भी थे, एवं अति-शत्रु शुक्र की राशि में बैठकर शुक्र को नियंत्रित करने वाले सूर्य से प्रभावित थे। तब तक अंग्रेजी सेना ने पूरे युद्ध क्षेत्र पर पूर्ण कब्जा कर लिया था।
ग्रहकाल का निर्धारण लग्न कुण्डली (D-1) के आधार पर ही करना चाहिए, यद्यपि विशेष मामलों में वर्गविशेष का ग्रहकालक्रम कारगर होगा। वर्ष एवं नक्षत्र प्रवेश चक्रों में भी ग्रहकाल का ऐसा ही विधान कार्य करता है, किन्तु पूरे विश्व की कुण्डली में केवल बंगाल का महत्व अल्प है अतः वैश्विक महत्व की घटनाओं में ही उसका प्रयोग करना चाहिए। ग्रहकालक्रम बनाने का नियम बड़ा आसान है : चक्रविशेष के ग्रहांश के अनुपात में चक्र के पूरे काल को बाँट दे। वर्षकुण्डली में 360 अंश का बंटवारा करना पड़ता है, लेकिन नक्षत्र तथा अर्धांश चक्रों में राशि त्यागकर केवल अंशादि के अनुसार ग्रहकाल तय करें। उदाहरणार्थ, यदि कोई ग्रह कन्या में 15 अंश पर है तो कन्या को भूल जायें और उस चक्र के पूरे कालखंड के ठीक मध्य में उस गृह के फलकाल को मानें क्योंकि उसका अंश राशि के ठीक मध्य में है। मेदिनी ज्योतिष का यह स्वर्णिम नियम सोने-चांदी के मूल्यों में उतार-चढ़ाव का ग्राफ बनाने में मदद करता है।
§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§ पृथ्वी-चक्र समाप्त §§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§
देश चक्र : वर्षफल
पृथ्वी-चक्र से विस्तृत भूभागों का फल मिलता है। बंगाल जैसे प्रान्तों का फल उसी भाव में स्थित अन्य प्रान्तों के फलों से क्या अंतर रखता है, इसकी जानकारी पृथ्वी-चक्र से नहीं मिलती। इसके लिए सूक्ष्म स्तर के चक्र प्रयोग में लाने पड़ेंगे। पृथ्वी-चक्र से निचला स्तर है देश-चक्र का। भारत का देश चक्र विदिशा-केन्द्रित है, जहां से समूचे कल्प का सभी विषयों का फलादेश किया जाना चाहिए।
D-1
1757 ईस्वी की D-1 (प्रथम षोडश वर्ग या लग्न कुण्डली) में सबसे अशुभ भाव कौन हैं इसकी जाँच पहले करनी चाहिए । 6, 8 और 12 भाव त्रिक या दुष्ट भाव कहलाते हैं क्योंकि उनमे बैठे ग्रह या मानचित्र के भूभाग अशुभ फल देंते हैं। 12 वें भाव के स्वामी शुक्र उच्च के हैं और पञ्चम भाव में हैं जो अत्यधिक शुभ है। अष्टम भाव के स्वामी बुध 11 के भी स्वामी हैं और नीच के हैं, अतः अशुभ हैं, किन्तु शुक्र के साथ बैठने के कारण बुध का नीचत्व भंग है एवं शुक्र का भी उच्चत्व भंग है और दोनों सामान्य हो गए हैं, लेकिन पञ्चम में बैठने के कारण दोनों शुभ फल दे रहे हैं। किन्तु षष्ठ भाव में उच्च के सूर्य हैं। त्रिक भाव में नीच ग्रह हों तो विपरीत राजयोग का शुभफल मिलता है, अतः त्रिक भाव में उच्च ग्रह के रहने से अशुभ फल ही मिलेगा। वर्षा की जाँच में देखा गया है कि त्रिक भाव में सामान्य ग्रह रहे तो अल्प-वृष्टि होती है, जबकि त्रिक भाव में उच्च ग्रह रहे तो अत्यधिक दुष्ट-वृष्टि द्वारा क्षति होती है। अर्थात त्रिक भाव में उच्च ग्रह रहे तो उठाकर पटकता है, ताकि अधिक चोट पँहुचे। इस प्रकार हम देखते हैं कि सबसे अधिक अशुभ भाव षष्ठ भाव है, जिसमे निम्न एवं मध्य बंगाल था। अतः शत्रु द्वारा बंगाल को क्षति पँहुचने की संभावना बन रही थी। राष्ट्रीय स्तर पर फल देखने पर पाते हैं कि देश का दशम भाव भी अत्यंत अशुभ था, क्योंकि दशमेश सूर्य षष्ठ में थे तथा दशम में अति-शत्रुगृही राहू थे। अतः राज्य भाव कमजोर था। सबसे बलवान भूभाग था दक्षिण भारत, जिसमे स्वगृही शनि के दोनों भाव 3 एवं 4 थे। अतः दक्षिण भारत की बड़ी शक्तियों की अच्छी स्थिति थी, जिनमे प्रमुख थे हैदराबाद के निज़ाम और मद्रास के फिरंगी । दिल्ली नवमस्थ था, नवमेश चन्द्र मित्र गृही होकर पूना के धन भाव में थे। चतुर्थ में स्वगृही शनि थे। देश के अन्य भूभाग उतने बुरे नहीं थे, लेकिन बंगाल को निश्चित तौर पर क्षति होनी थी, और यह क्षति राज्य के क्षेत्र में शत्रु से होनी थी।
D-10
दशमांश वर्ग की द्वादश-भाव कुण्डली में बंगाल तीसरे भाव में था, जिसके ईश मंगल षष्ठ में नीच थे। यह विपरीत राजयोग था, अर्थात सत्ता-परिवर्तन। वहीं धनेश-आयेश बृहस्पति उच्चस्थ होकर अत्यंत अशुभ थे, अर्थात बंगाल के स्वामी मंगल के साथ ऐसे ग्रह थे जो धन और राजस्व का नाश करा रहे थे। उच्च एवं नीच ग्रह एक साथ हों तो दोनों का उच्चत्व और नीचत्व भंग हो जाता है। तब भी षष्ठ भाव में बैठने के कारण अशुभ फल तो है ही। किन्तु प्रस्तुत उदाहरण से तो ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों का उच्चत्व और नीचत्व भंग नहीं होता, दोनों अपना-अपना फल देते हैं। ऐसे अनेक मामलों को जाँचने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पँहुचना चाहिए।
D-2
होरा वर्ग की द्वादश-भाव कुण्डली में निचला और मध्य बंगाल एकादश भाव में था, जिसके ईश मंगल अत्यंत अशुभ षडायेश (6 + 11 के ईश) थे, जिनके साथ दो बलवान शत्रु भाग्य भाव में बैठे थे। मंगल भाग्य भाव के साथ धन एवं आय भावों को क्षति पंहुचा रहे थे। वैसे भाग्य-भाव के मध्य के ईश शनि थे जो षष्ठ में थे, किन्तु भाग्य भावस्थ तीनों ग्रहों की राशि के ईश बृहस्पति बारहवें भाव में केन्द्राधिपति दोष से ग्रस्त एवं वक्री थे (7 + 10 के ईश, व्यापार, उद्यम एवं राज्य की हानि, वक्री होने से फल बलवान)।
देश चक्र : नक्षत्र-फल
देश-चक्र का प्रयोग करते समय यह याद रखना चाहिए कि देश-चक्र पर पृथ्वी-चक्र का नियंत्रण रहता है। तात्पर्य यह कि पृथ्वी-चक्र के फलादेश का विरोध देश-चक्र या प्रदेश-चक्र नहीं कर सकता। अतः पृथ्वी-चक्र के फलादेश के पूरक के रूप में ही देश-चक्र या प्रदेश-चक्र का प्रयोग करना चाहिए, जिनका मुख्य लाभ है क्षेत्रीय फलादेश की सूक्ष्मता।
D-1
देश-चक्र की वर्ष-कुण्डली (लग्न-कुण्डली या D-1) में बंगाल दशम भाव में है, पञ्चमेश और दशमेश होकर मंगल एकादश भाव में मित्रगृही हैं। सरसरी निगाह में लगता है की कुण्डली गलत है, क्योंकि मंगल अत्यधिक शुभ एवं बली हैं। लेकिन इस परिप्रेक्ष्य में निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है :
बंगाल का दशम भाव बली था जिस कारण युद्ध जीतने के बाद भी बंगाल पर राजनैतिक कब्जा विजेता नहीं कर सके। लेकिन देश-चक्र का बली क्षेत्रेश पृथ्वी-चक्र के अशुभ क्षेत्रेश (बंगाल के ईश) के अशुभ प्रभाव को काट नहीं सकता। अतः बंगाल की राजनैतिक स्वतंत्रता आभासीय थी।
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मंगल के राशीश शुक्र बारहवें भाव में सूर्य और बुध के साथ थे। बुध त्रिक में स्वगृही होकर अशुभ थे तो सूर्य शत्रुगृही थे। अतः मंगल अशुभ भाव में थे, यद्यपि मंगल स्वयं शुभ थे।
तीसरा बिंदु यह है कि मंगल के सिवा पूरी कुण्डली ही बंगाल के लिए अशुभ थी। मंगल के राशीश और उनके सम्बन्धी शुक्र, बुध और सूर्य तो 12वें भाव में अशुभ थे ही, बंगाल पर सर्वाधिक अशुभ दृष्टि रखने वाले चन्द्रमा, जो लग्नेश थे, षष्ठ में थे। मूलत्रिकोणस्थ शनि सप्तम में वक्री एवं अशुभ होकर थे : सप्तमेश और अष्टमेश होकर, और मुर्शिदाबाद पर 85% दृष्टि रखे थे। राहू अष्टमेश एवं अतिशत्रुगृही होकर लग्न में बैठकर लग्न को ही बिगाड़ रहे थे, जबकि शनि के साथ बैठे केतु शनिवत फल दे रहे थे। एक बृहस्पति ही थे जिनमे पूरा अशुभ गुण नहीं थे, लेकिन वे भी वक्री और अतिशत्रुगृही थे और शुक्र के वश में थे : बृहस्पति पर शुक्र की 57% भावेश-दृष्टि थी, जिसमे शुक्र के अशुभ सम्बन्धियों बुध और सूर्य की दृष्टियाँ जोड़ ले तो बृहस्पति पूरी तरह अशुभ ग्रहों के वश में थे। जहां पूरी कुण्डली ही अशुभ हो तो एक अकेला मंगल कितनी सहायता कर सकता है, वह भी तब जबकि अपने भाव पर शून्य दृष्टि हो? अतः बंगाल का पूरा भाग्य ही गड़बड़ था, केवल कहने की राजनैतिक स्वतंत्रता मंगल के कारण बच गयी।
सबसे महत्त्व पूर्ण बिंदु यह है की अन्य वर्गों के साथ मूल्यांकन करने पर मंगल का उपरोक्त शुभ प्रभाव दम तोड़ देता है।
D-10
नक्षत्र-प्रवेश चक्र में बंगाल के ईश मंगल दशमेश होकर शुभ थे, लेकिन दशम पर दृष्टि शून्य थी जिस कारण दशमांश वर्ग का महत्व बढ़ जाता है। नक्षत्र-प्रवेश के दशमांश वर्ग में बंगाल 12वें भाव में है, जहां अत्यधिक अशुभ वक्री बृहस्पति अष्टमेश और एकादशेश होकर स्थित थे और दशमेश राहु अतिशत्रु ही थे ; दशम भाव में मूलत्रिकोणस्थ शुभ शानि थे जिनकी बंगाल (मुर्शिदाबाद) पर अतिशत्रु 87% दृष्टि थी । 12वें भाव के स्वामी मंगल भी सप्तमेश और द्वादशेश होने के कारण शुभ नहीं थे। अतः दशांश वर्ग के अनुसार राजनैतिक कारण से आय (राजस्व) की हानि बृहस्पति करा रहे थे।
D-9
नवमांश-वर्ग में मध्य और निचला बंगाल अष्टम भावस्थ है तथा भावेश मंगल 3 + 8 के ईश होकर 12वें में षष्ठेश राहु युत हैं, एवं अष्टम में द्वादशेश सूर्य उच्चस्थ हैं। मंगल और सूर्य में परस्पर स्थान परिवर्तन योग हैं, लेकिन दोनों अत्यधिक अशुभ हैं अतः यह सम्बन्ध भी अशुभता को बढ़ावा ही दे रहा है। नवमांश-वर्ग और दशमांश-वर्ग का सम्मिलित विंशोपक लग्न के शुभ मंगल का प्रभाव नष्ट करने के लिए पर्याप्त है।
D-2
नक्षत्र-प्रवेश चक्र में बंगाल षष्ठ भाव में है और भावेश मंगल लग्नेश होकर अष्टम में हैं। षष्ठेश का अस्थ्तम में रहना विपरीत राजयोग कहलाता है, लेकिन लग्नेश अष्टम में रहे तो अशुभ है, अतः विपरीत राजयोग का शुभ फल नष्ट हो रहा है। धनभावस्थ शनि गाल पर अतिशत्रुदृष्टि डाल रहें हैं। 12-भाव की होराकुण्डली में लग्न और दुसरे भाव का सर्वाधिक महत्व है, दोनों अशुभ हैं।
देश-चक्र : अर्धांश-फल एवं फल-काल
पृथ्वी-चक्र के अर्धांश-फल का काल देश-चक्र के अर्धांश फल-काल से केवल 142 सेकंड अधिक था, (मेरु और विदिशा में देशांतर के कारण सूर्य की गतिजनित अंतर होना स्वभाविक ही है)। किन्तु ऊँचे वर्गों में इस फ़र्क का परिणाम महत्त्वपूर्ण हो सकता है। लग्न में अंतर के कारण प्रित-चक्र एवं देश-चक्र की लग्न कुण्डलियों में भारी अंतर था, अन्य वर्गों में अंतर वर्गानुपातानुसार और भी अधिक होगा। घटनाओं के काल में केवल 142 सेकंड का फ़र्क पडेगा।
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सर्वतोभद्र चक्र का प्रयोग
किसी एक वर्ग द्वारा सर्वतोभद्र चक्र का प्रयोग नहीं करना चाहिए। सभी प्रासंगिक वर्गों में सर्वतोभद्र चक्र का प्रयोग करके फलों को विंशोपक के अनुसार संयोजित करके फल देखना चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि "स" अक्षर पर सभी ग्रहों का कुल प्रभाव सर्वतोभद्र से देखना है तो सभी वर्गों में ऐसा प्रभाव देंखे और उन प्रभावों को सावधानी पूर्वक जोड़े, जोड़ने में वर्गों के विंशोपक बालों का ध्यान रखें (जैसे कि लग्नवर्ग का विंशोपक होरावर्ग से अधिक है, अतः सर्वतोभद्र में दोनों का प्रभाव एक समान नहीं माना जा सकता। किन्तु विंशोपक के साथ दो और बात का ध्यान रखा जाना चाहिए : ग्रहों के उच्च-नीच एवं शत्रु या मित्र गृह में रहने के अनुसार मुख्य बल का ध्यान रखें, तथा प्रासंगिक वर्ग का अधिक महत्व दें, जैसे की राज्य सम्बन्धी मामलों में दशमांश वर्ग का महत्व बढ़ जाएगा (कितना बढेगा यह अनुभव-जनित विद्या है, ग्रंथों से इसपर सहायता नहीं मिलेगी)। व्यक्तिगत जातक में भी सर्वतोभद्र चक्र का ऐसे ही प्रयोग करना चाहिए। इसमें एक सावधानी आवश्यक है : यदि कोई व्यक्ति या नगर किसी जातक या प्रदेश के लिए दशमांश वर्ग में सर्वतोभद्र चक्र द्वारा शुभ है और सिद्धांश (चतुर्विंशांश) वर्ग में सर्वतोभद्र चक्र द्वारा अशुभ है तो इसका अर्थ यह है कि महत्वपूर्ण कर्मों में उस व्यक्ति से बाधा पँहुचेगी लेकिन विद्या के क्षेत्र में उसी व्यक्ति से लाभ मिलेगा।
सर्वतोभद्र चक्र एक तांत्रिक चक्र है जिसका दुरुपयोग प्रयोगकर्ता पर उलटा वार करता है। 84 प्रकार के तांत्रिक ज्योतिषीय चक्रों में सर्वतोभद्र को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है, जिस कारण इसे चक्रराज और त्रैलोक्य-दीपक भी कहा जाता है।
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(दरभंगा स्थित मिथिला विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति स्वर्गीय डा लक्षमण झा की कृपा से उपरोक्त विधि पिछली शताब्दी में प्राप्त हुई थी)
- विनय झा
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HOW TO USE ( ENGLISH )
For details of this battle of 23 Jun 1757, start from : http://en.wikipedia.org/wiki/Battle_of_Plassey
(One must have Kundalee software installed in his/her computer for understanding this article fully. It is time-comsuming to upload screenshots at websites and fit them into articles. If readers use Kundalee software to examine this article, case studies can be written speedily.)
In the starter Form of Kundalee Software (version6.7.8 and higher) , select "Medini" in Folder Combo Box, and "VidishaDeshaCharet" in File Combo Box at top of the form. Never change the longitude and latitude, or time in hours, date and month. Change only the year at left side (do not touch date:time at right side of Form which is for Natal Horoscopy only, not needed in Medini Jyotisha). For Varshaphala, leave the default "1" in the bottom text box, and for any other Nakshatra Pravesha Desha-Chakra, replace "1" with the number of wanted Nakshatra (using 27-Nakshatra system excluding Abhijit, starting from 1 for Ashwini).
For analyzing Battle of Plassey, input "1757" in the left side Year Box, and click "SHOW" at top right of Input Data Form. You will get the starter page of output in either Hindi or English according to your selection in the started Data Input Form. In the 'Switchboard', click "MAIN" button, and enter the number of Shodasha Varga (Divisional Chart) you are interested in, default is "1" or Rashi and Bhaavachalita chart (D1). D1 modules are used in present case studies. Then click the "Shodasha Varga" button, you will get the detailed chart and relevant tables, with same chart on map in another form behind it.