Dr Lakshaman Jha Biography

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डा. लक्ष्मण झा का संक्षिप्त जीवन वृत्त एवं कृतित्व

डा. लक्ष्मण झा (५ सित., १९१६ - २३ जन., २००० ईस्वी) कलियुग में सत्ययुग के मानकों पर जीने वाले एक ऐसे महापुरुष थे जो एक ओर प्राच्य एवं पाश्चात्य विद्याओं के प्रकाण्ड विद्वान थे तो दूसरी ओर औपनिषदिक परम्परा के एक ऐसे ब्रह्मवेत्ता सन्त थे जिनके लिए ईश्वरभक्ति के समक्ष सब कुछ गौण था।

बिहार के दरभङ्गा मण्डलान्तर्गत रसियारी ग्राम के कुलीन ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ था। मिथिला के सुप्रसिद्ध विद्वान पं.रमानाथ झा की देख रेख में मधेपुर उच्च विद्यालय से उन्होंने मैट्रिकुलेशन किया। १९२७ ईस्वी में अभिभावकों द्वारा विवाह हेतु बाध्य किए जाने के विरोध में वे हाथी से कूद गये। पूर्वजन्म से ही बालब्रह्मचारी का संस्कार लेकर आये थे, भला विवाह कैसे करते! इनके विरत स्वभाव से भय खाकर घरवालों ने इन्हें विवाह के लिए परेशान करना छोड़ दिया, फलत: अन्य साधुओं की भाँति उन्हें गृहत्याग हेतु बाध्य नहीं होना पड़ा, और वे अध्ययन पूरा कर सके।

११ वर्ष को अवस्था से ही उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में बढ़ चढ़कर भाग लेना आरम्भ कर दिया था (साइमन कमीशन के विरूद्ध प्रदर्शन एवं १९३०-३१ के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भागीदारी)। १९३४ ईस्वी के भूकम्प पीड़ितों की सहायतार्थ डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को अध्यक्षता में बिहार सेण्ट्रल रिलीफ कमिटी बनाई गई तो उसमें १८ वर्ष के किशोर लक्ष्मण झा को भी सदस्य के तौर पर रखा गया। किशोरावस्था में ही अपने सत्ययुगीन जीवनशैली के कारण लक्ष्मण झा मिथिला में प्रसिद्ध हो गये थे। भागलपुर से इण्टर करने के पश्चात उन्होंने पटना कॉलेज से संस्कृत से स्नातक प्रतिष्ठा की परीक्षा में स्वर्णपदक प्राप्त किया और वहीं पर स्नातकोत्तर में नामांकन कराया। किन्तु १९४२ के आन्दोलन में उनको पढ़ाई बाधित हो गई। कॉलेज के दिनों में भी बिहार काँग्रेस के मुख्यालय में वे कार्य किया करते थे। उनकी मेधा से काँग्रेस के दिग्गज नेता भी प्रभावित रहते थे। यही कारण था कि जब अगस्त, १९४२ में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को गिरफ्तार किया गया तो मात्र २६ वर्ष को अवस्था में ही लक्ष्मण झा को अगस्त क्रान्ति का नेतृत्व करने के लिए बिहार प्रदेश आन्दोलन कमिटी का महासचिव बनाया गया। ९ अगस्त १९४२ के दिन उनके नेतृत्व में छात्रों की विशाल रैली पटना में निकाली गई, जिसने सचिवालय पर तिरंगा फहराया। फलस्वरूप पुलिस फायरिंग में सात छात्र शहीद हो गये, जिनके स्मारक आज भी पटना में विद्यमान हैं। इस घटना की प्रतिक्रिया में समूचा बिहार अगस्त क्रान्ति में कूद पड़ा। लक्ष्मण झा की आयु शेष थी, अतः बीच रैली में ही उनका मलेरिया बुखार तेज हो गया और उन्हें घर लौटना पड़ा। उनके मित्रों अम्बिका प्रसाद सिंह और सूर्यदेव सिंह ने शेष काल में रैली का नेतृत्व सम्भाला।
अगस्त क्रान्ति के दौरान एक सप्ताह तक शहरों तथा एक-डेढ़ मास तक ग्रामीण क्षेत्रों से ब्रिटिश राज पूरी तरह उठ गया था। लक्ष्मण झा उपचार के लिए गाँव लौट आये थे, किन्तु गाँव से ही उन्होंने 'जनता राज' की घोषणा कर दी। एक मास तक समूचे बिरौल थाना क्षेत्र में जनता राज कायम रहा, जिसकी देखरेख स्वयंसेवक करते थे। बाद में जब ब्रिटिश सत्ता पुनर्स्थापित हुई तो लक्ष्मण झा छिपकर नेपाल की ओर चल दिये, किन्तु रास्ते में एक भारतीय की मुखबिरी के कारण गिरफ्तार हो गये। उन्हें भागलपुर सेण्ट्रल जेल में ५ वर्षों से अधिक समय तक रखा गया।
स्वतन्त्रा प्राप्ति के पश्चात जेल से छूटने पर वे अध्ययन पूरा करने के लिए बिहार सरकार की छात्रवृति पर १९४७ ई. में इंग्लैंड चले गये। बिना एम.ए किये एक भारतीय छात्र सीधे पी.एच.डी. हेतु शोध करने की अनुमति माँग रहा है, यह सुनकर लण्डन के विद्वान चौंक गये। अनौपचारिक तौर पर विभागाध्यक्ष ने उनका साक्षात्कार लिया, जिसमें जानबूझकर टेढ़े मेढ़े प्रश्न पूछे गये। एक प्रश्न था : पूर्वी एशिया के एक देश में फिलहाल पुरातात्विक उत्खनन चल रहा है; उसमें बरामद सामग्रियों की सूचना दें। लक्ष्मण झा ने उक्त स्थल से प्राप्त वस्तुओं की पूरी सूची दिनक्रम के अनुसार सुना दी। बिचारे प्रश्नकर्ता को भी इतना मालूम नहीं था। उनकी अलौकिक मेधा से प्रभावित होकर लण्डन विश्वविद्यालय ने केवल साक्षात्कार लेकर ही उन्हें एम.ए. की उपाधि तथा विश्वप्रसिद्ध संस्थान ‘स्कूल अॅ व अफ्रीकन एण्ड एशियन स्टडीज' में पी-एच.डी. हेतु शोध की अनुमति दे दी। डॉ. केनेथ कॅाडिन्गस के निदेशन में 'मिथिला और मगध' विषय पर उन्होंने शोध सम्पन्न किया और डॉक्टरेट की उपाधि लेकर १९४९ में भारत लौटे।
छात्रवृत्ति की शर्त थी पाँच वर्ष तक सरकारी नौकरी। फलत: पटना के काशीप्रसाद जयसवाल शोध संस्थान में उपनिदेशक का पद उन्होंने सम्भाला। किन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात नेताओं का बदला चरित्र देखकर उनका दम घुटता था। संन्यासी का स्वभाव भला भ्रष्ट मालिकों की नौकरी कैसे सहन करता! इस्तीफा देकर १९५२ के संसदीय चुनाव में समाजवादी दल के टिकट पर खड़े हो गये| भारतीय संसद में उनके जैसा प्रखर व्यक्तित्व और मेधा का धनी व्यक्ति प्रवेश पा जाता तो भ्रष्ट नेताओं की खैर नहीं रहती। अत: समाजवादी दल के शीर्षस्थ नेता भी उनके विरूद्ध खुलकर चुनावप्रचार में जुट गये और उनके क्षेत्र में आकर भाषण में कहा कि इस सीट पर हमारा नेहरू जी से तालमेल हो गया है|फलस्वरूप डॉ. लक्ष्मण झा की हार हो गई| राजनैतिक दलों में भ्रष्टाचार से खिन्न होकर डॉ. लक्ष्मण झा ने राजनीति से संन्यास की घोषणा कर दी। किन्तु सरकार ने पाँच वर्ष तक सरकारी नौकरी की शर्त तोड़ने के आरोप में उनपर मोकदमा कर दिया। मौखिक इकरार था, सरकार के पास कोई लिखित साक्ष्य नहीं था। किन्तु डॉ. लक्ष्मण झा को नजदीक से जानने वाले मंत्रीगण जानते थे कि डॉ. लक्ष्मण झा झूठ नहीं बोल सकते। अपने वकील के मना करने पर भी डॉ. लक्ष्मण झा ने अदालत में स्वीकार कर लिया कि पाँच वर्ष तक सरकारी नौकरी की शर्त पर ही उन्हें लण्डन में पढ़ने हेतु छात्रवृत्ति दी गई थी। फलत: उनकी समस्त ४३ बीघा जमीन कुर्क कर दी गई। किन्तु उनकी सम्पति को बोली लगाने का दुस्साहस किसी ने नहीं किया। अन्ततः उनके बड़े भाई ने नीलामी में जाकर घर को सम्पति छुड़ाई।
तत्पश्चात सरकारी इकरार के अन्तर्गत उन्होंने सी. एम. महाविद्यालय, दरभङ्गा में व्याख्याता का पद सम्भाला। साथ ही 'मिथिला' साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन भी प्रारम्भ कर दिया, जिसमें नेहरू जी को जमकर आलोचना प्रकाशित की जाती थी। परिणामस्वरुप सी. एम. महाविद्यालय के व्यवस्थापकों ने किसी भारतीय विश्वविद्यालय से एम. ए. की उपाधि प्राप्त नहीं करने के आरोप में उन्हें बर्खास्त कर दिया। डॉ. लक्ष्मण झा यही चाहते थे,अतः इस अन्यायपूर्ण निर्णय के विरूद्ध उन्होंने कहीं भी कोई अपील नहीं की। १९६३-१९७२ के दौरान बिहार के प्रमुख समाचारपत्र इण्डियन नेशन में उनके १३० लेख प्रकाशित हुए। इण्डियन नेशन ने जब कांग्रेस के पक्ष का रूख अपनाया तो डॉ. लक्ष्मण झा ने 'क्लियोपेट्रा' शीर्षक से एक लेख भेजा। इन्दिरा गाँधी की नाराजगी के भय से सम्पादक ने वह लेख प्रकाशित नहीं किया। फलत: इण्डियन नेशन से करार भी टूट गया। ४३ एकड़ जमीन रहने पर भी वे लेख छपाकर जीवन यापन करते थे,गाँ व से कुछ भी नहीं मंगाते थे। यह सहारा भी १९७२ ई. में छिन गया। स्वतन्त्रता सेनानी की पेंशन लेने भी जब उन्होंने इन्कार किया तो इन्दिरा गाँधी ने विशेष दूत भेजकर पेंशन से दोगुनी राशि देने का प्रस्ताव रखा, किन्तु भारतीय राजसत्ता का चरित्र देखकर डॉ. लक्ष्मण झा सरकारी धन छूना भी पाप समझते थे। १९७७ ई. में उनके शिष्य कर्पूरी ठाकुर ने स्वयं मुख्यमन्त्री बनने पर जब उनसे मिथिला विश्वविद्यालय का कुलपति बनने का आग्रह किया तो डॉ. लक्ष्मण झा ने शर्त रखी कि वे वेतन नहीं लेंगे, सरकारी आवास का प्रयोग अपने रहने के लिए नहीं करेंगे, तथा सन्ध्यादि नित्यकर्म में बाधा हो इसी हिसाब से कुलपति कार्यालय में समय देंगे एक बार कुलाधिपति की बैठक में एक उच्च अधिकारी ने सिगरेट सुलगा ली तो डॉ. लक्ष्मण झा ने बैठक का बहिष्कार कर दिया; कुलाधिपति स्वयं क्षमायाचना करके उन्हें पुन: बैठक में लाये थे। क्लास नहीं लेने वाले अनेक शिक्षकों का वेतन डॉ. लक्ष्मण झा ने रुकवा दिया। मिथिला का दुर्भाग्य था कि ऐसे विद्वान कुलपति को यहाँ के कुछ मूर्ख शिक्षक सहन नहीं कर सके। इन लोगों के असभ्य आचरण से क्षुब्ध होकर डॉ. लक्ष्मण झा ने त्यागपत्र दे दिया।
अध्ययन पूरा करने के पश्चात उनकी लेखनी अनवरत चलती रहो। जीवन के अन्तिम दशक में उन्होंने लेखनकाय त्यागकर अपने प्रिय कार्य में ही पूरा समय लगाना श्रेयस्कर समझा : जपयज्ञ। किन्तु उनकी साधना एकान्तिक थी। उनके प्रिय शिष्य भी इस बारे में केवल अनुमान हो लगा सकते थे। डॉ. लक्ष्मण झा के जीवन के दो पहलू थे : सांसारिक एवं असंसारी। उनके सांसारिक जीवन की झलक ऊपर दिखलाई गई है। १९५२ ईस्वी में ही सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बावजूद मिथिला के लोग उन्हें भुला नहीं पाये। किन्तु सांसारिक लोगों को उनके सांसारिक पहलू का ही परिचय मिल सका। ऐसे वीतराग साधु आज भी जीवित है जो असंसारी ब्रह्म के इस अद्भुत असंसारी भक्त की अलौकिक शक्तियों के गवाह हैं। डॉ. लक्ष्मण झा अपने नाम में 'डॉक्टर' नहीं लगाते थे। एकभुत थे। आठ प्रहर में तीन रोटियों का भोजन था। अपरिग्रही इस हद तक थे कि कुलपतियों की बैठक में जब दिल्ली से बुलावा आया तो पुराने अखबार बेचकर उन्हें ऊनी चादर खरीदनी पड़ी, यद्यपि तीन भाईयों में १२९ बीघा खेती योग्य जमीन थी। उनका मूलधन था सन्ध्या और प्राणायाम। आजकल प्राणायाम ऐय्याशों का फैशन हो गया है। डॉ. लक्ष्मण झा के लिए प्राणायाम प्राणान्तक तप का पवित्रतम रूप था, जिसका लक्ष्य था ब्रह्मप्राप्ति। किन्तु उन्हें प्राणायाम करते कोई देख नहीं पाता था। कितने पापियों का उन्होंने उद्धार किया इसका हिसाब केवल ऊपरवाले के पास है। विद्वान बहुत से हुए हैं। साधु भी बहुत हैं। पर विद्वान साधु विरले ही होते हैं। आधुनिक युग में ऐसा विद्वान साधु दूसरा नहीं मिलेगा जो बालब्रह्मचारी हो, सन्त हो, प्राच्य एवं पाश्चात्य विद्याओं का अद्वितीय विद्वान हो, अपरिग्रही हो, और न केवल पुत्रैषण तथा वित्तैषणा से ही बल्कि लौकैषणा से भी इस सीमा तक मुक्त हो कि अपने जीवन में अपना कोई भी ग्रन्थ प्रकाशित करने का विरोधी हो।

भगवान जब धन देते हैं तो छप्पर फाड़ कर देते हैं। और जब ज्ञान देते हैं तो खोपड़ी में समाना कठिन हो जाता है। डॉ. लक्ष्मण झा की अप्रकाशित पाण्डुलिपियों में उनके ज्ञान का सौंवा हिस्सा भी नहीं है। एक ब्रह्मज्ञानी का ज्ञान अनन्त होता है। वह जिस विषय वा वस्तु का ज्ञान चाहता है ईश्वर स्नेहवश तत्क्षण उपलब्ध करा देते हैं। किन्तु ब्रह्मज्ञान लिखा नहीं जाता। यह वैयक्तिक अनुभूति को चीज है। अनास्था के इस युग में डॉ. लक्ष्मण झा की विभूतियों का वर्णन करना निरर्थक है। हरिद्वार के स्वामी सर्वप्रकाशानन्द परमहंस (स्वामी रामकृष्ण परमहंस के गुरुभाई) अथवा पोखराम, दरभङ्गा के पास 'सरकार' और 'इञ्जीनीयर साहब' नाम से प्रसिद्ध संन्यासी आज भी जीवित हैं जो डॉ. लक्ष्मण झा की दिव्य विभूतियों के साक्षी हैं। किन्तु ये लोग साधुओं के समक्ष ही डॉ. लक्ष्मण झा के गुणों की चर्चा करना पसन्द करेंगे। आधुनिक युग में सतयुग के सूर्यसिद्धान्त का रहस्योद्घाटन डॉ. लक्ष्मण झा की अनगिनत विभूतियों में से एक है। सूर्यसिद्धान्त में ही इसे ब्रह्मविद्या की संज्ञा दी गई है। ब्रह्मविद्या केवल ब्रहाचारियों को ही दी जाती है। आजतक किसी ने इस परम्परा को नहीं तोड़ा है|प्रस्तुत ग्रन्थ इस परम्परा का उल्लंघन नहीं है, क्योंकि यह ग्रन्थ पढ़कर भी समझ वही पायेंगे जो ब्रह्मचयपूर्वक ब्रह्म को समझने और पाने का प्रयास करेंगे। वीर्यपात को मनोरंजन समझने वाले विपरीत मानवों के औन्धे युग में ब्रह्मविद्या का जमकर मजाक उड़ाया जायगा। वैज्ञानिकों को ब्रह्म में तभी विश्वास होगा जब वे टेस्ट ट्यूब में ब्रह्म को डालकर उसपर अम्ल और क्षार का प्रभाव देख पायेंगे। कलियुग में वेदविद्या को 'विशेषज्ञों' द्वारा अन्धविश्वास घोषित किया जाता रहेगा।

अपने जीवन में वे कोई ग्रन्थ छपाना नहीं चाहते थे | 1950-52 में आठ पुस्तिकाएं छपाए थे जिनमें नेहरु और अंग्रेजों के षड्यन्त्र का और गलत तरीके से सत्ता के हस्तांतरण की आलोचना किये थे जिस कारण नेहरु ने आठों पुस्तक प्रतिबन्धित कर दिए | "मिथिला" नाम का साप्ताहिक पत्र उसी काल में प्रकाशित करते थे | "इण्डियन नेशन" बिहार का प्रमुख दैनिक अखबार था जिसमें उनके 130 लेख सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुए थे | उनकी पीएचडी की थीसिस अब प्रकाशनाधीन है |

डॉ. लक्ष्मण झा के अप्रकाशित ग्रन्थ

संस्कृत

१. भाववेद: १९६२-३
२. लोकवृत्तम् १९६३-४
३. अर्थसिद्धि: १९६४-५
४. राजनीति: १९६५-६
५. ब्रह्मविहार: १९६६-८
६. कालकथा: १९७३-४
७. धर्मकथा: १९८२-३

मैथिली
८. मिथिला १९५२-३
९. मिथिलाक इतिहास १९५५-९
१०. भारतक रक्षा १९६०
११. सज्जन चरित १९६३
१२. लोक ओ वेद १९६८-७१
१३. प्राचीन कथा १९८०-१

हिन्दी
१४. लण्डन १९४८
१५. हिंदी १९६८
१६. ब्रह्म और ब्राह्मण १९७२-३
१७. दुर्दशा १९७४-५
१८. स्वराज्य और भारत १९८३
१९. मुसलमानकालीय मिथिला १९८४
२०. कोशी १९६४-५
२१. दोष और दुःख १९८५
२२. ब्रह्मपाद १९८६
२३. भारत क्या करे ? १९८६-७
२४. दोषी कौन ? १९८८
२५. दिल्ली कथा १९८९
२६. संकट १९९०-१
२७. पृथ्वी माता

ENGLISH

1. Mithila & Magadha 1948
2. Home And World 1950-6
3. Politics 1959
4. Philosophy 1960
5. Economics 1961
6. World On Fire 1960-5
7. God And Man 1966-71
8. Man And Nature 1971-2
9. Democratic Dictatorship 1972-5
10. Man And God 1976-80
11. Life And Times 1981
12. Politics And Problems 1981-2
13. Wilderness And Light 1984
14. Bred For Bedlam 1985
15. War On Life 1985
16. Heaven Is Here 1985
17. Where To Go? 1985-6
18. Work And Wages 1986
19. Price Of Prosperity 1986
20. Good Bye 1986
21. Freedom : Its Roots And Faces 1987-8
22. Time To Die 1988
23. Fear Of Life 1988
24. Cry Help 1989
25. The Wild 1989
26. Heroes And Limelight 1989
27. Grapes And Sour 1989-90
28. No Nonsense Rhyme 1990-1
29. Thoughts & Comments 1991
30. The Brahmana
(अजय आर्य द्वारा टंकण / टाइपिंग)

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