मासिकधर्म का ज्योतिषीय गणित
आधुनिक जीवविज्ञान के अनुसार एक सामान्य बालिग़ नारी में प्रत्येक मास एक अण्डा का निर्माण होता है जिसकी आयु लगभग एक दिन की होती है । अन्य किसी भी दिन आधान असफल होता है । किन्तु आधुनिक जीवविज्ञान में यह ज्ञात करने का कोई उपाय नहीं है कि उस एक दिन का ठीक-ठीक निर्धारण कैसे किया जाय । इसका कारण यह है कि मासिकधर्म के कालक्रम में ऐसी कोई नियमितता वैज्ञानिकों द्वारा नहीं देखी गई है जिसके आधार पर आधानकाल का निर्धारण किया जा सके । ऐसी नियमितता न मिल पाने का कारण यह है कि आधुनिक वैज्ञानिकों का ईसाई कैलेण्डर ही अवैज्ञानिक और अशुद्ध है जिसमें सायन सौर वर्ष के बारह मनमाने विभाग करके मासों के अनियमित और अप्राकृतिक मान निर्धारित किये गए हैं । भारतीय ज्योतिष में ग्रहों की प्राकृतिक गति के आधार पर समस्त घटनाओं का अध्ययन करने की दीर्घ परम्परा रही है जिस कारण समस्त परिघटनाओं की सही व्याख्या सम्भव है । प्रस्तुत आलेख में प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के आधार पर उपरोक्त समस्या का हल ढूंढने का प्रयास किया गया है ।
वशिष्ठ संहिता (आधानाध्याय) के अनुसार "सभी स्त्रियां चन्द्रात्मिका हैं, और सभी पुरुष सूर्यात्मक हैं , जिस कारण चन्द्रवश रज और सूर्यवश वीर्य का निर्माण होता है"। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सूर्य और चन्द्रमा की परस्पर गति के आधार पर रज और वीर्य के संयोग का काल निर्धारित होना चाहिए । सूर्य और चन्द्रमा की परस्पर गति के आधार पर जो कालमान बनता है वह भारतीय ज्योतिष में चान्द्रमान कहलाता है । आधुनिक पश्चिमी साहित्य में इसी को लूनी-सोलर कैलेंडर कहा जाता है, जिसके अनुसार सूर्य की तुलना में चन्द्रमा की गति के आधार पर मासों का निर्धारण किया जाता है । वेद के अनुसार पूर्णमासी के दिन मास की पूर्णता होती है जब सूर्य और चन्द्रमा परस्पर सम्मुख होते हैं और एक-दूसरे पर पूर्ण दृष्टि रखते हैं , जिस कारण रज और वीर्य की भी परस्पर पूर्ण दृष्टि और संयोग का काल वही होता है ।
किन्तु यह गर्भाधान का केवल दीर्घकालीन औसत मान है , जिसे निश्चित मान देने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका मंगल की होती है । वशिष्ठ संहिता का कथन है : "प्रत्येक (चान्द्र-) मास में चन्द्रमा और मंगल का जब योग होता है अथवा अनुपचय-स्थान में स्थित चन्द्रमा पर मंगल की दृष्टि जब होती है तब (स्त्रियों को) रजोधर्म होता है" ( "अनुपचयस्थे चन्द्रे धरणिसुतवीक्षणाद्वापि" ; धरणिसुत means Mars) ।
चन्द्रमा पर मंगल की दृष्टि आधे से अधिक हो यह तभी सम्भव है जब मंगल से चन्द्रमा ७० से १२० अंश अथवा १६५ से २४० अंश आगे स्थित हो, जो ३६० अंशों में केवल १२५ अंश-मात्र है । चन्द्रमा और मंगल की युति ३० अंशो तक होती है , अर्थात जब दोनों एक ही राशि में हो । अतः ३६० अंशों में से केवल कुल १५५ अंशों का कुल मान है जब अनुपचय स्थानों में चन्द्रमा के रहने से रज-काल रहता है । द्वादशभावों में से आठ भाव अनुपचय हैं (१, २, ४, ५ ,७ ,८ ,९ ,१२), अर्थात दो तिहाइ । अतएव १५५ अंशों में से भी केवल दो-तिहाई ही सार्थक रहेंगे , जो ३६० अंशों का २८.७०४ प्रतिशत है । एक चान्द्रमास औसतन २९.५३०५८८ दिनों का होता है, जिसका २८.७०४ प्रतिशत है ८.४७६३७ दिन ।
चन्द्रमा जब सूर्य के सान्निध्य में रहता है तो अस्त-दोष के कारण चन्द्रमा की शक्ति का क्षरण होता है, अतः यह काल रजोधर्म का विपरीत काल होता है जिसमें मृत अण्ड के साथ रज का निष्कासन होता है । एक चान्द्रमास का आधा हिस्सा ही ऋतुकाल होता है क्योंकि कृष्णपक्ष में चन्द्रमा क्षीण होता है । अष्टमी को पूरा गिन लेने से तीस तिथियों में से सोलह तिथियाँ ऋतुकाल की होती है , यद्यपि तीस तिथियों का आधा ही वास्तव में शुद्ध ऋतुकाल होता है । ऋतुकाल का आरम्भ रजोदर्शन से होता है जब स्त्री को पुष्पवती कहा जाता है । इस ऋतुकाल में भी आरम्भिक चार दिन अशुद्ध माने जाते हैं और ऋतुकाल का दशम दिन भी वशिष्ठ संहिता में वर्जित माना गया है । अतः तीस तिथियों में से केवल एक तिहाई तिथियाँ ही ऋतु हेतु शुद्ध मानी गयी हैं । अतएव उपरोक्त ८.४७६३७ दिनों का एक तिहाई, अर्थात कुल ऋतुकाल में से केवल २.८२५४६ दिन ही आधान हेतु उपयुक्त होते हैं । दीर्घकालीन गणनानुसार इसका आधा ही वास्तव में सार्थक होता है, क्योंकि दीर्घकाल के दौरान ऋतुकाल के आधे भाग में चन्द्र-मंगल की उपरोक्त युति अथवा दृष्टि कृष्णपक्ष में होती है जो रज हेतु अनुपयुक्त होता है । इसकी व्याख्या निम्नोक्त है ।
[ सूर्यसिद्धान्तानुसार एक महायुग के १५७७९१७८२८ दिनों में २२९६८३२ भौम भगण (३६० अंशों का भ्रमण एक भगण कहलाता है) तथा ५७७५३३३६ चान्द्र भगण होते हैं, अतः मंगल की तुलना में (१५७७९१७८२८ - २२९६८३२ =) एक महायुग में चन्द्रमा के ५५४५६५०४ भगण होते हैं । इस कारण एक भौम-चान्द्र भगण अथवा एक भौम-चान्द्रमास में (१५७७९१७८२८ - ५५४५६५०४ =) २८.४५३२५१ दिन होते हैं जो कि आधुनिक वैज्ञानिकों के मतानुसार मासिकधर्म का औसत चक्र है , जबकि एक सौर-चान्द्रमास में (१५७७९१७८२८ - ५३४३३३३६ =) २९.५३०५८८ दिन होते हैं (क्योंकि एक महायुग में ५७७५३३३६ -४३२०००० = ५४३३३३३६ सौर-चान्द्रमास होते हैं)। इस कारण सौर-चान्द्र कालमान की तुलना में भौम-चान्द्र कालमान का परस्पर अन्तर लगभग १३.७ मासों में एक पक्ष का हो जाता है । फलस्वरूप आज यदि मंगल और चन्द्रमा की युति शुक्लपक्ष में है , तो १३.७ मास बाद कृष्णपक्ष की उसी तिथि में यह युति होगी । अतएव दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में चन्द्र-मंगल युतियों का आधा शुक्लपक्ष में तथा शेष आधा कृष्णपक्ष में होता है । ]
अतएव दीर्घकालिक औसत यह है कि प्रत्येक चान्द्र-मास में केवल १.४१३ तिथि अथवा १.३९ दिन ही आधान सम्भव होता है । इसमें भी ग्रहों के अस्त, नीचत्व आदि अशुभ योग त्याग दें तो प्रत्येक मास लगभग एक दिन अथवा उससे भी न्यून ही आधान हेतु रज उपयुक्त होता है । आधुनिक विज्ञान भी यही कहता है ! यह तो दीर्घकालिक औसत मान है, आधान का वास्तविक काल तो मुहूर्त-निर्णय के शास्त्रीय नियमों के आधार पर ही निर्धारित करना चाहिए । दुर्भाग्य की बात है कि अब हिन्दुओं में मुहूर्त के आधार पर गर्भाधान का निर्णय नहीं होता और न ही गर्भाधान-संस्कार किया जाता है । अतः धर्म-सम्मत काम के साक्षात ब्रह्म-स्वरूप होने का भगवद्-गीता का वचन अब व्यवहार में प्रयुक्त नहीं होता , और धर्म का साधन न होकर काम केवल वासना का साधन बन गया है । यह नहीं भूलना चाहिए कि गीता का प्रवचन द्वापर के अन्त में हुआ था, अतः इसके वचनों का पालन कलियुग का धर्म है ।
होरा ग्रंथों में सप्तांश वर्ग को संतानोत्पत्ति हेतु महत्वपूर्ण कहा गया है, जिसके सात देवता हैं : क्षार , क्षीर , दधि , आज्य , इक्षुरस , मद्य और शुद्धजल । क्षीर और आज्य शुभ हैं ; दधि , इक्षुरस और शुद्धजल मध्यम हैं, तथा क्षार एवं मद्य अशुभ हैं । बृहदारण्यक-उपनिषद् के अन्त में इन शुभ देवताओं का सम्बन्ध गर्भाधान-संस्कार से जोड़कर फलकथन कहा गया है । जातक के सप्तांश-वर्ग के चन्द्रमा के आधार पर सप्तांश की विंशोत्तरी सारिणी बनाएं और उसके आधार पर तय करें कि शुभ देवता वाले ग्रह का काल कब है, जिसमें मुहूर्त-निर्णय के द्वारा गर्भाधान का सही काल निर्धारित करें । ब्रह्मचारी गुरु हेतु ऐसा मुहूर्त शिष्य के आगमन का काल होता है ।
एक स्त्री के सम्पूर्ण जीवन में लगभग ४०० बार रजोदर्शन होता है, अर्थात ४०० चान्द्र-मासों या ३२.३४ वर्षों तक ऐसा सम्भव है । प्रथम बार रजोदर्शन होने के ज्योतिषीय योगों के आधार पर संहिता ग्रंथों में विस्तार से फल-कथन कहा गया है ।
[ ENGLISH ] Astrological Mathematics Of Menstrual Cycle
According to modern biology, one ovum is formed in a normal adult woman per month, which survives for about one day. Conception (Ädhäna) is infructuous on any other day. But there is no way in modern biology to determine with certitude that particular day. It is because no such regularity has been found in menstrual cycle by scientists which may help in fixing the exact timing of conception. The reason why such a regularity has not been found is the use by scientists of unscientific and inaccurate Christian Calendar in which tropical year has been haphazardly divided into twelve irregular and unnatural months. In Indian Astrology, there is a long tradition of studying all phenomena on the basis of natural motions of planets, due to which correct interpretation of any phenomenon is possible. In this article an attempt has been made to solve the aforementioned problem on the basis of ancient Indian texts.
According to Vasishtha Samhita (Ädhäna-adhyäya), "All the women are lunar in nature, and all the men are solar, hence ovum in women is formed due to lunar influence and semen in men is formed due to solar influence". It implies that the timing of ovulation and conception by semen should be determined on the basis of mutual motions of Sun and Moon. The calendar based on the latter is called Chändra calendar in Indian Astrology and Luni-solar calendar in the West, in which months are determined on the basis on Moon's relative motion vis-a-vis Sun. According to Vedas, month is completed on Poorna-mäsee (Full Moon) when Sun and Moon are opposite each other and have full aspect on each other, as a result of which ovum and semen have full aspect on each other and have highest chances of conception.
But this is only the long-term average period of menstruation, which is given a more deninite periodicity on account of the influence of Mars. Vasishtha Samhita states : "Women ovulate each month when Mars and Moon are either conjunct or Moon in non-upachapa houses is aspected by Mars".
Moon can have more than 50% aspect of Mars only when Moon is either 70 to 120 degrees ahead or 165 to 240 degrees ahead of Mars, which add up to only 125 degrees in a total 360 degrees. Moon and Mars are conjunct for 30 degrees only, i.e., when bothe are in same sign. Both add up to 155 degrees, during which only that portion is fit for ovulation when Moon is in non-upachaya houses. Among twelve horoscopic houses, eight houses or two-thirds of all houses are non-upachaya, i.e., 1, 2, 4, 5, 7, 8, 9, 12). Hence, two-thirds of 155 degrees will be significant for conception, which makes up 28.704% of 360 degrees. 28.704% of a lunar month is 8.47637 days.
When Moon is near Sun, its powers are reduced due to combustion, hence this time is opposite of ovulation when dead ovum is expelled with its associate tissues &c. Moon is weak during dark half, hence only bright half or Shukla Paksha is the Rtu period in which conception is possible. Ashtami or eighth tithi is counted wholly, hence rtu period is believed to be of 16 tithis out of 30 in a luni-solar month. Onset of rtu-period is called rajo-darshana when woman is termed as Pushpavati ("flowered"). Four initial days of rtu period are held to be impure and tenth day is also forbidden in Vasishtha-samhitäfor conception. Hence, only one third of days are auspicious., which make up 2.82546 days out of aforementioned 8.47637 days. In long-term, only half of even these 2.82546 days are effective for conception because in long-term Mars-Moon conjunction or aspecting occurs in dark half of lunar month which is inauspicious for conception, as explained below.
[ According to Suryasiddhanta, there are 1577917828 days in one Mahäyuga, which has 2296832 revolutions of Mars and 57753336 of Moon, hence Moon has (57753336 - 2296832 =) 55456504 revolutions with respect to Mars in one Mahäyuga. Hence, one Luni-Martian month has (1577917828 / 55456504 =) 28.453251 days which is the average menstruation cycle according to modern scientists. In contrast, one Luni-Solar month has (1577917828 / 53433336 =) 29.530588 days , which is longer than one Luni-Martian month. Due to this difference, if Moon is conjunct with Mars today in bright half, they will be conjunct on same tithi but in in dark half after 13.7 months. Therefore, in long-term, half of Moon-Mars conjunctions or aspects occur in white half and the remaining 50% occur in dark half of luni-solar month. ]
Hence, the long-term average is 1.413 tithis or 1.39 days for the fruitful period of conception during each menstrual cycle or month. This period of 1.4 days is further reduced to about one day or less due to combustions, debilitations and other inauspicious yogas of various planets. Modern science also says that ovum survives for 24 hours or less during each menstrual cycle. But this is long-term average only, actual timing of conception should be determined according to standard rules of electional (muhurta) astrology. Unfortunately now Hindus do not determine the timing of conception according to muhurta and do not follow rules and rituals of garbhädhäna-samskära. Hence, the the statement of Gita about dharmic Käma being God Himself in no longer practised, and instead of being an instrument of Dharma now Käma has been reduced to the status of being an instrument of Väsanä (libido). It must not been forgotten that Gita was given at the fag end of Dwäpar Age, hence the djharma it preached was meant for Kaliyuga.
Horä texts say saptämsha-varga (D-7 or seventh divisional) is for garbhädhäna or conception, which has seven deities : Kshära, Ksheera, Dadhi, Äjya, Ikshurasa, Madya and Shuddhajala. Ksheera and Äjya are auspicious ; Dadhi, Ikshurasa and Shuddhajala are neutral ; while Kshära and Madya are inauspicious. At the end of Brihad-Äranyaka-Upanishada, fruits of conception relative to these deities of D-7 is explained. Create Vimshottari-table of D-7 according to lunar longitude in D-7 and according to that find out the timing of Vimshottari planets having auspicious deities of D-7 and then determine the appropriate timing of garbh garbhädhäna or conception according to standard rules of traditional electional astrology. For a brahmachäri guru, such a timing foretells the arrival of a good disciple.
One average woman has about 400 menstural cycles or 32.34 years during her entire life span. Samhitä texts of Jyotisha explain the astrological fruits according to astrological combinations of planets during first menstruation in the life of a girl.
Personal Notes
Some persons have missed those portions of this article which clearly state that the menstrual periodicity based on motions of Sun, Moon and Mars is "long-term average only",
and then I had added :
"actual timing of conception should be determined according to standard rules of electional (muhurta) astrology" ,
and the final conclusion is stated thus :
"Create Vimshottari-table of D-7 according to lunar longitude in D-7 and according to that find out the timing of Vimshottari planets having auspicious deities of D-7 and then determine the appropriate timing of garbh garbhädhäna or conception according to standard rules of traditional electional astrology."
If you do not like this method due to your pre-conceived ideas about divisionals and Vimshottari, you will NEVER be able to correlate actual conception and birth of children with standard rules of Vedic Astrology, and will be forced to run from one hypothesis to another throughout your life.
I firmly believe that Modern Man is incapable of performing Vedic Garbhädhäna Samskära and live according to its ancient rules, due to changed yuga-dharma of modern society. That is why I did not marry. For instance, if someone needs four offsprings, it is sinful to have a carnal relation with wife for the fifth time. Dharma-patni is for Dharma ONLY , and not for carnal satisfaction of sense organs : this is Vedic Dharma which Vedic Jyotisha must follow. There are minor changes according to Desha, Käla and Pätra, but the basics of Vedic Dharma are Satänata which no parliament or assembly of pandits can amend. If the individual or the society does not follow Dharma, it is that individual or that society and not Dharma which is doomed.
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Here is online translation of first verse of Nisheka-adhyaya in Varaha-mihira's Brihat-Jataka :-
"Mars and the Moon are the cause for monthly menses. When the Moon is in anupachaya rasis occurs. When the reverse is the case, and the masculine benefics aspect, the woman gets sexual."
It is almost a correct translation of the original Sanskrit. The great scholar Varahamihira could never dream of countering rishis. Here, the first part of the verse states exactly what I have cited from Vasishtha Samhitaa, and the latter half simply means that when the conditions are different from those causing menstruation, then "the union of Kaamini takes place with the male provided auspicious male planets are aspecting (Moon)" :- I have provided here the exact translation of the verse of Varahamihira which some moderners are misinterpreting.
The implication is simple : there are certain yogas mentioned above which cause menstruation, but during menstruation union of male and female does not or should not take place, and under different astrological conditions, ie, when menstruation is not occurring then the union takes place.
But detailed commentary by Bhatta Utpala who included many other things not mentioned in the original verse has been misinterpreted by some modern commentators who do not know Sanskrit and do not differentiate the statement of Varahamihira from extra statements of his commentator Bhatta Utpala.
[ Some persons hate me due to my strong ideas, but I cannot change my ideas to please everyone.]
VJ